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दोस्ती की भावना से भरा पंछी 'मैगपाई रॉबिन ' Magpie Robin

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 सफेद और काले रंग का ये सुंदर सा पंछी 'मैगपाई रॉबिन 'बहुत खूबसूरत लगता है. यह बहुत जल्दी दोस्ती कर लेता है .दोस्ती यानी आप पर भरोसा कर लेता है कि उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा. सुबह मेरे कमरे की खिड़की खुलने से पहले यह आवाजें लगाता है.और शाम को खिड़की बंद होने पर भी मानो डांटता है कि इतनी जल्दी क्यों बंद कर लिया. :)  कई बार खिड़की से कूदकर घर के अंदर भी आ जाता है. अगर मैं बहुत देर तक खिड़की के पास ना जाऊं तो अपनी सुरीली आवाज़ में इतनी टेर लगाता है कि सागर कह उठती है, 'भाभी  जाओ ,अपना चेहरा दिखा कर आ जाओ "उसे भी झिड़कती है, 'रुक आ रहीं हैं :) '

 अगर मैं खिड़की पर खड़ी हूँ और रॉबिन  सामने वाले पेड़ की डाल पर बैठा हो तो उड़ कर खिड़की पर आ कर बैठ जायेगा . उड़ते हुए उसके काले-सफेद पंख इतने सुंदर लगते हैं कि मैं मुग्ध हो देखती रह जाती हूँ, वीडियो लेना भूल जाती हूँ.मेरे बच्चे भी  मुझे देखकर, हर बार इस तरह दौड़ कर नहीं आयें होंगे. अगर मैं खिड़की पर हाथ टिका कर बैठूं तो बिलकुल कुहनी के पास बैठ जाएगा,ज़रा भी नहीं डरता 😊

नर-रॉबिन के सर-चोंच-वक्ष और पंख चमकते हुए काले रंग के होते हैं. पेट सफेद होता है और पंख पर सफेद धारियां होती हैं जो बहुत सुंदर लगती हैं. मादा-रॉबिन के सर-चोंच-वक्ष और पंख धूसर रंग के होते हैं.नर की तरह ही पेट सफेद और पंख पर सफेद धारियां होती हैं. मादा-रॉबिन बहुत शांत दिखती है. एक ही जगह पर देर तक बैठी रहती है. इनसे  ही शिकायत  है,नर और मादा कभी साथ साथ बैठे नहीं दिखते .इनकी ऐसी एक भी तस्वीर नहीं ले पाई हूँ. वैसे भी बुलबुल-तोता-गौरया=मैना-कबूतर की तरह ये झुण्ड में नहीं रहते. कभी कभी ही दो रॉबिन साथ में दिखते हैं.

रॉबिन की इन आदतों के विषय में अपूर्व को बता रही थी तो उसने बताया,“डबलिन में भी रॉबिन बहुत दिखते हैं . (रॉबिन की अलग किस्म ).ग्रैंडपा (मकान-मालिक) इनकी एक स्टोरी सुनाते हैं “ . मुझे वो कहानी सुनने की इच्छा थी पर हमेशा ह्मारी बात किसी और तरफ मुड जाती. एक रोज मैंने कहा,“पहले रॉबिन की कहानी सुनाओ,फिर आगे दूसरी बात होगी “

“हाँ सुनाता हूँ...ग्रैंडपा बताते हैं, अगर लॉन में अकेले टहल रहे हो तो रॉबिन पास में आ जाएगा .पार्क में भी अकेले देख,उडकर पास आ जाता है ,बहुत फ्रेंडली होता है “

“कहानी तो सुनाओ...”
“यही कहानी थी...”

ये कहानी थी या इन्सटाग्राम स्टोरी :) ....मुझे लगा था रॉबिन से जुड़ा कोई किस्सा होगा. :D














 


प्रवासी पक्षी : खंजन

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जानि सरद रितु खंजन आए।

पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।।’’

पंछियों की दुनिया में रूचि लेने से पहले ही इस 'खंजन'पक्षी से परिचित थी. माँ को रामायण की बहुत सारी चौपाइयां कंठस्थ हैं और गाँव में कभी इस पक्षी को दिखाकर उन्होंने ये चौपाई कही थी. हमारे गाँव में इसे खिर्लीच कहा जाता है. तभी से इस पक्षी की पहचान हो गई थी .पर कभी गहराई से नहीं सोचा था कि ऐसा क्यूँ कहते हैं कि खंजन को देख कर समझ जाना चाहिए कि शरद ऋतु आने वाली है.

सहस्त्रों वर्षों से ये पंछी हज़ारों किलोमीटर की दूरी तय कर सर्दियों में बर्फीले प्रदेशों से हमारे यहाँ आते हैं. और गर्मी आते ही अपने देश लौट जाते हैं. गर्मियों में ही ये अपने देश में प्रजनन और बच्चों की देखभाल करते हैं. उन प्रदेशों में यह पंछी गौरैया की तरह ही आम है पर हमें इनके दर्शन शरद ऋतु में ही होते हैं. इनकी पूंछ हमेशा हिलती रहती है इसीलिए अंग्रेजी में इसे wagtail कहते हैं. ये अलग अलग रंगों के होते हैं. सफेद-सलेटी-पीला .मैंने सफेद वाला खंजन ही देखा था. पहली बार पीले रंग के गले और वक्ष वाला खंजन देखा.
नवंबर-दिसम्बर से ही अन्य प्रदेशों के पक्षी-प्रेमी खंजन की तस्वीर लगाने लगे थे. पर मुंबई में मुझे ये पंछी नजर नहीं आ रहे थे .अब तो सर्दी उतार पर है.मैंने आशा ही छोड़ दी थी कि आज सुबह दूर से एक छोटा सा पंछी नजर आया जिसकी पूंछ लगातार हिल रही थी . मैं समझ गई, आज मेरा लकी डे है 🙂. नई जगह पर कुछ कुछ भूला सा, देर तक चुपचाप बैठा यह इधर उधर देख रहा था 💛💛 .
इस पंछी से सम्बन्धित एक जिज्ञासा और थी . आँखों की सुन्दरता की उपमा खंजन नयन से दी जाती है .तुलसीदास ने भी सीता जी के आँखों की तुलना खंजन से की है.
सूरदास ने कृष्ण जी के रूप का बखान करते हुए कहा


खंजन नैन रूप रस माते।
अतिसय चारू चपल अनियारे, पल पिंजरा न समाते।
लेकिन खंजन पक्षी की आँखें बहुत खास नहीं होतीं।ज्यादातर पक्षियों की तरह ही सामान्य सी होती हैं
शायद खंजन पक्षी के आकार की तुलना आँखों से की गई है. अगर दो खंजन पास पास हों तो दो सुंदर नयनों से लगेंगे.



























भारतीय घरों का सच दिखाती फिल्म : The great indian kitchen

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 The great indian kitchen फिल्म देखते हुए कई चेहरों का आँखों के समक्ष आ जाना लाज़मी है। हर मध्यमवर्गीय भारतीय महिला अपनी जिंदगी में कभी न कभी इन अनुभवों से गुजरती है। भारत के किसी भी प्रदेश की रसोई हो। त्योहारों पर बनने वाले सुस्वादु व्यंजन को दरकिनार कर दें तब भी रोज के खाने में भी बहुत मेहनत लगती है। पीसना,तलना, भूनना और ये सारी मेहनत स्त्री के हिस्से ही आती है। उस पर से पुरुषों के नखरे ,चटनी सिलबट्टे पर पिसी होनी चाहिए, चावल कुकर में नहीं,पानी में उबाल कर बनाये जाएं। पुरुष किसी भी प्रदेश में जाकर बस जाएँ पर उनकी जीभ पर पारंपरिक स्वाद का असर बना रहता है . शुरू के दृश्यों में हीअप्पम, इडियप्पम, पुट्टू,डोसा-सांभर, उबले केले,टोपियोको, केले के चिप्स छनते देख पता कल जाता है,यह केरल की रसोई है.

सुबह से घर की महिलाएं रसोई में लग जाती हैं और पुरुष जूठे चाय का कप भी सिंक में नहीं रखते।टेबल पर सांभर से निकाले सहजन भी चबा कर थाली के बगल में छोड़ देते हैं। जूठी प्लेटें और टेबल पर से जूठन उठाते उबकाई आ जाए. पर घर की स्त्रियाँ चेहरे पर बिना शिकन लाए जूठन उठाती हैं. ससुर जी के जूते भी सास सामने लाकर रखती है। और ससुर गर्व से बहू से कहते हैं, 'मेरी पत्नी एम.ए. पास है फिर भी अपने पिता के कहने पर उसे नौकरी नहीं करने दी'।जबकि सास बहू से कहती हैं, 'तुम अप्लाई कर दो, सेलेक्ट हो जाने के बाद बात की जाएगी।'
नायिका लकड़ी के चूल्हे पर चावल बनाते, गैस पर साम्भर पकाते हुए टेबल पर रखे लैपटॉप पर नौकरी के आवेदन भी टाइप करती जाती है.
फ़िल्म में पीरियड आने पर किये जाने वाले छुआछूत पर भी विस्तार से चर्चा है। जब पीरियड आने पर नायिका को हर काम की मनाही हो जाती है और वो आराम से मोबाइल देखती रहती है, किताब पढ़ती रहती है तो मुझे एक पल को लगा, इस दिन-रात की मेहनत से कुछ दिनों के लिए बचाव अच्छा ही है।पर स्त्रियों को ऐसे समय में आराम देने की सोच नहीं बल्कि उन्हें हीन दिखाने की मंशा होती है। लड़की की बुआ सास आती है और उसे एक छोटे से कमरे में एक दरी बिछाकर सोने ,किसी के सामने न आने ,अपनी प्लेट धोकर अलग रखने के लिए कहती है। स्कूटर से गिरे पति को उठाने जाती है तब भी उसे झिड़की मिलती है,उसने पति को छू कैसे दिया ? पति साबरी मलाई की यात्रा पर जाने वाला था। पंडित उसे पत्नी के छू लेने पर शुद्ध होने का उपाय बताते हैं , 'गाय का गोबर खाना पड़ेगा या गोमूत्र पीना पड़ेगा फिर कहते हैं, नदी में डुबकी लगा लो तब भी शुद्धि हो जाएगी'। यानी पुरुष की सुविधा के लिए आसानी से नियम में परिवर्तन कर दिए जाते हैं।
मेरे पास केरल की एक लड़की पेंटिंग सीखने आती थी। उसने एक दिन आक्रोश में बताया, 'पता है, मेरा पति कहता है, पीरियड आने पर जमीन पर सोया करो ,मैं ब्राह्मण हूँ '। उस लड़की ने गुस्से में आगे कहा ,'और मैं क्या हूँ...पांच दिनों के लिए मेरी जाति चली जाती है ?'एक दिन उसने पति से सैनिटरी नैपकिन लाने को कहा तो पति ने कहा, "मैं पूजा-पाठ वाला आदमी हूँ,मुझसे ये सब मत मंगवाया करो।"पति आई आई टी से पढ़ा एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत था। फ़िल्म में भी नायिका अपने पति से सैनिटरी नैपकिन लाने के लिए कहती है ,उसके पति को नागवार तो गुजरता है पर शुक्र है, वो कुछ कहता नहीं।
इस फ़िल्म का एक दृश्य बहुत महत्वपूर्ण है। नायिका मायके आई हुई है। उसका छोटा भाई बाहर से आता है, एक ग्लास पानी मांगता है। माँ दूसरी बहन से पानी लाने के लिए कहती है, और नायिका बिफर जाती है, "तू खुद से एक ग्लास पानी नहीं ले सकता ?"पहले शायद उसे भी ये बड़ी बात नहीं लगती हो पर ससुराल में पुरुषों का बिलकुल ही काम न करना और स्त्रियों से सारे काम की अपेक्षा ने नायिका का ध्यान अपने मायके में लडके-लडकी के बीच होते भेदभाव की तरफ खींचा. शुरुआत ऐसे ही होती है, एक ग्लास पानी ला दो, खाना लगा दो, बिस्तर बिछा दो और लडकों को अपना काम भी करने की आदत नहीं पडती. आम मध्यमवर्गीय माँओं की तरह माँ नायिका को माफ़ी मांग लेने और अडजस्ट करने की सलाह देती है.
फ़िल्म में किचन का सिंक टपकता रहता है।नायिका उसके नीचे बाल्टी लगाकर रखती है और फिर गंदा पानी उठाकर बाहर फेंकती है। पति से कहकर थक जाती है,वे बड़ी सुविधा से भूल जाते हैं। नायिका का बार बार गंदे पानी से भरी बाल्टी फेंकना और पोंछा लगाते रहना उन्हें बड़ी बात लगती ही नहीं क्यूंकि उन्हें तो टेबल पर खाना परस कर मिल जाता है, धुले कपड़े मिल जाते हैं.
अंत में नायिका वही गंदा पानी ससुर और पति के चेहरे पर फेंक देती है और घर छोडकर चली आती है. पर उन्हें क्या, उन्हें तो एक दूसरी लडकी मिल जाती है जो शादी के बाद उसी तरह उनके जूते बर्तन उठाती है...और बिना चेहरे पर शिकन लाए घर के सारे काम करती है.

फिल्म में बीफ (गौ-मांस) का भी कई बार जिक्र है. बहुत लोगों को ज्ञात नहीं है कि केरल के हिन्दू जो बहुत पूजा-पाठ करते हैं, मंदिर जाते हैं, सुबह तुलसी में जल देते हैं , शाम को दिया जलाते हैं. उनके खान-पान में बीफ सामान्य रूप से शामिल है.

फिल्म की लोकेशन और कलाकारों के अभिनय बहुत सहज और सच्चे लगते हैं। अगर इसका हिंदी रीमेक बना तो फ़िल्म कुछ अलग ही नज़र आएगी। एक बात और ध्यान देने वाली है, केरल में सर पर पल्ला या घूंघट का रिवाज नहीं है। नायिका सलवार सूट तो पहनती है पर दुपट्टा कभी नहीं लेती।उत्तरभारतीय घरों में तो सारा काम करते, सर पर दुपट्टा और पल्ला सम्भालते स्त्रियाँ परेशान होती रहती हैं।
The great indian kitchen में महिला को सुबह से शाम तक किचन में खटते दिखाया जाता है। कभी जो कोई फ़िल्म The great indian house पर बनी तो फिर दिखाना पड़ेगा, सुबह महिला किचन में काम करती है, बच्चों को स्कूल छोड़ने-लाने जाती है, सब्जी-राशन लाती है। बच्चों को डॉक्टर के पास ,उनके स्कूल के पी.टी.एम., स्पोर्ट्स डे, एनुअल डे, अटेंड करती है। घर में मेहमानों की आवाभगत, उन्हें घुमाना-फिराना, बीमार सास-ससुर की सेवा सब महिला के जिम्मे। महानगर में पुरुषों की मजबूरी होती है, सुबह के गए, देर रात गए लौटते हैं।अक्सर प्राइवेट नौकरी होती है,छुट्टी नहीं ले पाते। यहाँ पुरुष विलेन नहीं मजबूर होते हैं।पर इनमें ही जो पुरूष स्वभाव से क्रूर होते हैं पत्नी के इतना कुछ करने के बाद भी उसे गालियों और नीले-काले निशान से भी नवाजते हैं।

नौकरी वाली महिलाओं की गाथा तो और भी साहस भरी, सुबह चार बजे उठकर ,रात ग्यारह बजे तक घर-दफ्तर सब सम्भालती हैं।

खैर, इन सब पर फ़िल्म जब बनेगी तब देखी जाएगी।फिलहाल तो अमेज़न प्राइम पर The great indian kitchen देख लीजिए (खासकर सभी पुरुष )। भाषा मलयालम है,अगर इंग्लिश सबटाइटिल्स पढ़ने में मुश्किल हो तब भी आराम से देखी जा सकती है। समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

सीमा प्रधान की पुस्तक : कश्मकश की आँच

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आजकल रोज रोज की खबरों से मन इतना अवसादग्रस्त है कि बस शुतुरमुर्ग की तरह किसी फिल्म में सर घुसा दीन दुनिया भूल जाने की कोशिश करता है. किसी किसी दिन चार फ़िल्में देख लेती हूँ (अलग-अलग भाषाओं की ) किताबें पढनी हैं, लिखना है पर मन कहीं टिकता ही नहीं. ऐसे में बचपन की दोस्त Seema Pradhanकी किताब, “कश्मकश की आँच” आई. उलट-पुलट कर देख लिया, सीमा की तस्वीर निहार ली , परिचय पढ़ गर्वित हो ली और जल्दी ही पढूंगी करके रख दिया. जब उसने फोन पर पूछा तो बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई. वो भी इंतज़ार में ही होगी कि रश्मि खुद बतायेगी .

और फिर सुबह की चाय के साथ जो किताब शुरू की,लंच की तैयारी से पहले खत्म कर ली। एक सिटिंग में इसलिए नहीं पढ़ी कि मेरी फ्रेंड की किताब है बल्कि इस किताब में ऐसी क्षमता है कि उठने नहीं देती.
सीमा पच्चीस वर्षों से भी अधिक समय से अध्यापन कर रही है. पिछले दस वर्षों से अपने कुशल हाथों में केन्द्रीय विद्यालय के प्राचार्या का पद सम्भाल रखा है. सीमा ने ज्यादतर ग्यारहवीं -बारहवीं कक्षा के छात्रों को पढाया है. यह उम्र का सबसे नाजुक दौर होता है, जिसमें सीमा जैसे संवेदनशील शिक्षकों की भूमिका अति महत्वपूर्ण हो उठती है. करीब दस वर्ष पूर्व रुचिका राठौर की आत्महत्या की खबर से आहत होकर मैंने एक लेख लिखा था,'खामोश और पनीली आँखों की अनसुनी पुकार'
रुचिका के साथ पढने वाली एक लड़की बता रही थी कि अपने साथ हुए उस हादसे (एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा छेड़खानी ) के बाद खिड़की के पास अपनी डेस्क पर बैठी रुचिका पूरे पूरे दिन या तो खिड़की से बाहर देखती रहती थी या रोती रहती थी। रोज़ उसकी क्लास में करीब करीब सात टीचर्स जरूर आते होंगे। उनमे से एक ने भी करीब जाकर उसके दिल का हाल जानने की कोशिश नहीं की ?उस तक पहुँचने के लिए कोई पुल तैयार नहीं किया ? अगर किसी टीचर ने रुचिका के साथ,थोडा समय बिताया होता.उसके पास आने की कोशिश कर उसका दुःख बांटने की कोशिश की होती.रुचिका को भी अपना दुःख,इतना बडा नहीं लगता,कि उसने अपनी ज़िन्दगी खत्म करने का ही फैसला ले लिया "
पर मुझे बहुत गर्व है कि मेरी कुछ करीबी सहेलियाँ भावना शेखर,रीना पंत, सीमा प्रधान ऐसी ही शिक्षिकाएं हैं जिन्होंने न जाने कितने ही किशोर मन के ताने बाने को सुलझाने की कोशिश की। उनके कोमल मन के बिखरते तन्तुओं को अपने सुदृढ़ हाथों से सहारा ही नहीं दिया, उनके जीवन को एक नई दिशा भी प्रदान की .
सीमा प्रधान अपनी किताब की भूमिका में लिखती हैं, "जीवन की धूप से कुम्हलाए,इन अधखिले फूलों को जानते,इनकी खूबियों और खामियों को पहचानते,भांपते यही समझ पाई हूँ कि थोड़े से प्यार व विश्वास के घेरे में लेकर आसानी से इनके मन की तहों में प्रवेश किया जा सकता है "
सीमा ने बखूबी उनके किशोर मन की समस्याएं समझीं और सुलझाई हैं।चाहे माता-पिता के लाड़-प्यार में डूबे अज़ीज़ का किसी भी रिजेक्शन को बर्दाश्त न कर पाना हो या माँ के अविश्वास और कठोर सजा से घबराई निधि का झूठ-फरेब के रास्ते को अपना लेना हो। एक सह्रदय -संवेदनशील शिक्षिका उन्हें सही मार्ग पर ले आती है।
इस किशोर वय में मन में कोमल भावनाएं भी कुंनमुनाने लगती हैं और अपेक्षित प्रतिक्रिया न पाकर निराशा के गर्त में डूबते देर नहीं लगती। जिस उम्र में भविष्य के सपनों की नींव रखी जानी होती है वह अवसादग्रस्त हो यूँ ही जाया हो जाती है। पर अगर शिक्षक की निगाहें सजग हों तो बच्चे इस स्थिति से उबर आते हैं।
एक छात्रा 'संगम'के संघर्ष का उल्लेख पाठकों को सुखद आश्चर्य से भर देगा। हम नागरिकों को अपरिमित अधिकार प्राप्त है बस हम उसका उपयोग नहीं करते। गाँव में रहने वाली 'संगम'बहुत कठिनाइयों से शहर आकर पढ़ाई करती है। उसे विज्ञान पढ़ना था पर उसे 52% अंक ही मिले थे। स्कूल के नियम के अनुसार सिर्फ 60%वालों को ही ग्यारहवीं में विज्ञान लेने की अनुमति थी।
संगम ने सीधा प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखा, "क्या बेटी पढ़ाओ,बेटी बचाओ अभियान महज एक नारा है।अगर सच्चाई है तो वह एक बेटी को साइंस संकाय में दाखिला दिलवा कर इसे साबित करें।"
संगम की अदम्य इच्छा को देखते हुए, विद्यालय को प्रधानमंत्री कार्यालय से उसे साइंस संकाय में प्रवेश का निर्देश मिला।
सभी घटनाओं के उद्गम में सच्चाई का अंश है फिर उन्हें सीमा की कलम ने बड़ी रोचकता से पठनीय बना दिया है।
सीमा को उसकी प्रथम पुस्तक की सफलता की अशेष शुभकामनायें ।
मेरे लिए विशेष गर्व का अवसर है। किशोर वय में ही सीमा और मेरी दोस्ती हुई थी। उस वक्त हम दोनों को किताबें पढ़ने का जुनून था। उस वक्त हमने कभी नहीं सोचा था,हमारी किताबें भी प्रकाशित होंगी ,पाठकों को पसन्द आयेंगी। पर कभी अनदेखे सपने भी सच हो जाते हैं।😊
"कश्मकश की आँच "पुस्तक 'दी बुक लाइन'पब्लिकेशन से प्रकाशित हुई है।अमेज़न पर उपलब्ध है।

जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं, पुष्पा भारती जी

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जिसका भी हिंदी साहित्य से बचपन या किशोर वय में नाता जुड़ा ,उसके लिए उस उम्र में 'गुनाहों का देवता'पढ़ना पहले प्यार में भीगने की मानिंद रहा। 'धर्मयुग'के माध्यम से भी धर्मवीर भारती और पुष्पा भारती जी बहुत आत्मीय से लगते थे।

जब मैं कई वर्षों बाद पुनः साहित्य की दुनिया से जुड़ी और मुंबई में हर महीने होने वाले साहित्यिक आयोजन 'चौपाल'में पुष्पा भारती जी से मिली तो उन्हें निर्निमेष निहारती रह गई। अस्सी वर्षीया पुष्पा जी ने बहुत सुंदर सा आधुनिक डिज़ाइन वाला सलवार कुर्ता पहन रखा था।उनके लंबे नाखूनों पर चमकती हुई नेलपॉलिश लगी हुई थी। घुंघराले बाल गुंथी चोटी से छिटक चेहरे पर छा गए थे। होठों पर उन्मुक्त हंसी थी और आवाज में खनक। उन्होंने चौपाल में बड़े रोचक अंदाज में निराला से जुड़ा अपना संस्मरण सुनाया था और कनुप्रिया से कविता पढ़ी थी। उनकी खनकदार आवाज में उम्र का कोई स्पर्श नहीं था।

पुष्पा भारती का जन्म 11 जून 1935 में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुआ था।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. पुष्पा जी ने कुछ समय तक कोलकाता में अध्यापन भी किया।
धर्मवीर भारती से विवाह के बाद मुंबई आईं और मुक्ताराजे के छद्म नाम से लेखन की शुरुआत की।
पुष्पा भारती ने विश्व प्रसिद्ध लेखकों और कलाकारों के निजी प्रेम प्रसंगों पर आधारित उनकी निजी प्रेम गाथाएं लिखीं। वेंकटरामन, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर समेत तमाम विशिष्ट व्यक्तियों के साक्षात्कार लिए।
राजस्थान शिक्षा विभाग के आग्रह पर 'एक दुनिया बच्चों की'का संपादन किया। लंबे समय तक बाच चित्र निर्माण संस्था (सीएफएसआई) से जुड़ी रहीं।उनकी अनेक किताबें छप चुकी हैं।

पुष्पा जी स्वभाव से भी बहुत बेबाक हैं।चौपाल में ही ग़ज़ल गायक राजकुमार रिज़वी उनसे मिलने आये।मैं पुष्पा जी के पास ही बैठी हुई थी। उन्होंने रिज़वी साहब को नहीं पहचाना।परिचय देने पर हठात बोलीं, "अरे! आप तो कितने हैंडसम हुआ करते थे।"🙂रिज़वी साहब झेंप गए।अब उनके बाल चले गए थे पर फिर पुष्पा जी ने देर तक उनसे आत्मीय बातचीत की और उन दिनों को याद किया जब भारती जी के सान्निध्य में उनके घर की महफिलों में राजकुमार रिज़वी गज़लें गाया करते थे।
बाद के दिनों में पुष्पा जी से कई आयोजनों में मिली और एक बार उनके घर जाने का मौका भी मिला। धर्मवीर भारती जी का घर तो किसी हिंदी वाले के लिए तीर्थ समान ही है। पुष्पा जी एक लंबा सा सुंदर कुर्ता और पलाज़ो पहने, हमारे इंतज़ार में ही थी। घर की साज सज्जा इतनी खूबसूरत और व्यवस्थित थी कि यकीन करना मुश्किल था,पुष्पा जी अकेली रहती हैं।किताबों से सजी आलमारी के साथ, जगह जगह गुलदस्ते और छोटे छोटे प्लांट्स रखे हुए थे। दीवारों पर भारती जी और पुष्पा जी की आत्मीय तस्वीरें थीं। पुष्पा जी का एक नाती उनके साथ रहता है।उस वक्त वह जेट एयरवेज में था और अक्सर घर से बाहर ही रहता था। नाती ने हमलोगों को नमस्ते कहा और हमलोगों के लिए ट्रे में रख, ग्लास में पानी लेकर आया। फिर घर से जाते वक्त भी हमलोगों को बाय कहकर गया,जिसकी आवश्यकता नहीं थी पर यह पुष्पा जी के दिए संस्कार थे।वरना मुम्बई में पले-बढ़े एक आधुनिक युवा से कोई ऐसी अपेक्षा भी नहीं रखता ।

हमारे पूछने पर कि आपको कुछ अकेलापन लगता होगा। उन्होंने कहा, "कैसा अकेलापन ? मैं तो पूरे समय भारती जी की उपस्थिति महसूस करती हूँ। उनसे बातें करती रहती हूँ। मुझे वे अपने आस-पास ही दिखते हैं।"उन्होंने भारती जी से जुड़े कई संस्मरण सुनाए पर उनकी अनुमति के बिना यहाँ लिखना उचित न होगा।
पुष्पा जी ने हमारे लिए नाश्ता मंगा कर रखा था और वे चाय बनाने के लिए किचन की तरफ मुड़ीं। उन्होंने पार्ट टाइम हेल्पर ही रखी है।बाकी समय वे खुद मैनेज करती हैं। (इसी वजह से इतना व्यवस्थित घर देख मैं हैरान थी। हर चीज़ अपने जगह-ठिकाने पर थी )।मैं उन्हें चाय कैसे बनाने देती ? पुष्पा जी ने चाय-चीनी-दूध की जगह बताई,सुंदर कप प्लेट निकाल कर दिए।मैं चाय बनाते हुए एक पुलक से भर रही थी। आठवीं में पढ़ी, जिनकी लिखी चंदर-सुधा की कथा से ही प्रेम की अनिभूति, पीड़ा,विछोह से परिचय हुआ था।आज उन्ही रचयिता के किचन में खड़ी थी। उनके कमरे-गलियारे-स्टडी में घूमते हुए अहसास हो रहा था,भारती जी भी इसी फर्श पर चलते होंगे,इसी कुर्सी पर बैठते होंगे। मानो हमें उनकी पदचाप सुनाई दे रही हो ।
पुष्पा जी की अनुमति से दीवार पर लगी कुछ तस्वीरों की तस्वीर ली। हमें बातचीत करते चार घण्टे गुजर गए थे।घर भी वापस लौटना था और पुष्पा जी थक न गईं हों,ये चिंता भी हो रही थी। पर पुष्पा जी ने कहा,'वे चार घण्टे और बात कर सकती हैं।बिल्कुल तरोताजा महसूस कर रहीं हैं।'❤️
पुष्पा भारती जी यूँ ही तरोताजा बनी रहें,उनकी उन्मुक्त हंसी और दमदार आवाज़ कायम रहे।पुष्पा जी को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं !!💐💐















बुजुर्गों की कर्मठता

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सच ही कहा जाता है, इंसान उम्र भर सीखता रहता है। दो वर्ष पूर्व तक मुझे लगता था,बुजुर्गों को कोई काम नहीं करना चाहिए। उन्होंने सारा जीवन काम किया है। अब जीवन का आनंद लें, टी वी देखें-गप-शप करें-टहलें-अच्छा खाये-पहनें बस।

अपनी माँ-मौसियों से कहती भी रहती थी, 'बहुत काम कर लिया तुमलोगों ने,अब तुम्हारी काम करने की उम्र नहीं।'पापा से भी हम सब यही कहते थे। पर पापा एक वाक्य बार बार दुहराते,"I want to die with my boots on "
और यही हुआ भी।स्कूल की देखभाल करते, सोसायटी की देखरेख करते सिर्फ दस दिनों की बिमारी में पापा चले गए । जाने के चार दिन पहले उन्होंने निर्देश दिया था कि स्कूल के बच्चों के रिजल्ट के साथ उनमें नोटबुक और पेंसिल बंटवा देना 🙏 .

 हमारे मन में मलाल भी है कि शायद पापा ने इतनी मेहनत नहीं की होती तो उनका शरीर इतना कमजोर नहीं हुआ होता। जरा सी बीमारी उन्हें हमसे दूर नहीं कर देती। पर मन को यही दिलासा देते हैं कि उन्होंने जैसा जीवन चाहा, आखिरी वक्त तक बिल्कुल वैसा ही जिया 🙏

मेरा छोटा बेटाअपूर्व जब डबलिन पढ़ने 
 गया और अपने 83 वर्षीय मकान मालिक जिन्हें ग्रैंडपा कहता है, के विषय में बताने लगा तो मुझे आश्चर्य हुआ।अकेले रहते हैं,अपने घर के सारे काम के साथ इतने सुंदर लॉन की देखभाल करते हैं। बीज से पौधे तैयार करना, उन्हें लगाना ,खाद-पानी, सिंचाई-निराई सब खुद ही करते हैं। कोरोना से पहले वीकेंड पर नियमित पब जाते थे। अपने दोस्तों के साथ रोड  ट्रिप पर जाते हैं। आज भी उनके बच्चे वैकेशन पर कहीं उन्हें साथ ले जाते हैं।तो ग्रैंड पा उनकी गाड़ी में नहीं जाते ( बेटे-बेटी-बहू की ड्राइविंग नहीं पसंद ) खुद ड्राइव करके जाते हैं। 84 वर्ष की  उम्र में 300 किलोमीटर ड्राइव करके  जाना और आना तो मुझे विस्मित करता हैं।

लेकिन ये सब सुनकर मेरी सोच भी बदली है, अब दोस्त भी जब परेशान होकर कहते हैं कि उनके माता-पिता अकेले रहना चाहते हैं, तो मैं उन्हें समझाती हूँ, "अगर एक ही शहर में हैं तो उन्हें अकेले रहने दो । हफ्ते में एक बार जाकर देखभाल कर आना। "सोच लिया है, माँ जब मेरे पास मुंबई आएंगी तो पहले जहाँ उन्हें कुछ भी नहीं करने देती थी,अब सब्जी बनाने की जिम्मेवारी उन्हें ही सौंप दूँगी । अपने हाथों का खाकर बोर भी हो गई हूँ :) 


अपूर्व रोज सुबह चाय पीते हुए, अपने ग्रैंडपा के लॉन में फूलों के बीच टहलते हुए ही फोन करता है। आदतवश मैं पीछे पड़ गई, 'फोटो भेजो '। पर लड़कों ने माँ की इस आदत बिल्कुल नहीं अपनाया है।आखिरकार एक दिन मैंने फोन कट किया, कहा 'पहले फोटो खींच कर भेज दो फिर दुबारा कॉल लगाओ 🙂'

आज फोटोग्राफी दिवस पर इन सुंदर फूलों को यहाँ भी सहेज लेती हूँ :) 





 










फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

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यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife "देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मधु कांकरिया और रोहिणी अग्रवाल जैसी वरिष्ठ लेखिकाओं ने मननशील और गम्भीर विचार प्रगट किये हैं। संचालिका जयश्री सिंह ने जब रोहिणी अग्रवाल जी से पूछा ,"क्या हिंदी के पुरुष आलोचक स्त्री लेखन का सही मूल्यांकन करते हैं ?"रोहिणी अग्रवाल जी का जबाब था, "इसका बहुत ही स्पष्ट और सीधा उत्तर है, 'नहीं'पुरुष आलोचक,स्त्री विमर्श और स्त्री लेखन को पुरुष वर्चस्व के लिए खतरा मानते हैं।"सुधा अरोड़ा जी ने भी जिक्र किया कि "बहुत दिनों तक महादेवी वर्मा को भी छायावादी कवयित्री के रूप में ही जाना जाता रहा. उनकी श्रृंखला की कड़ियाँ बहुत बाद में चर्चा में आईं. "फ़िल्म भी इसी विषय पर केंद्रित है कि कैसे महिला लेखन को दरकिनार कर दिया जाता है।उनपर बात नहीं की जाती ,उनके लेखन को नज़रंदाज़ किया जाता हैं, उन्हें हतोत्साहित किया जाता है। इन सबसे एक नवोदित लेखिका इतनी निराश हो जाती है कि उसमें अपने नाम से लिखने की इच्छा ही मर जाती है और एक पुरुष लेखक इसका बखूबी फायदा उठाने लगता है. फिल्म में एक नवोदित लेखिका ,अपने कॉलेज के प्रोफेसर को अपनी लिखी कहानी दिखाती है.प्रोफेसर तारीफ़ तो करता है पर कई सारी कमियां भी बताता है. नायिका एक ऐसी लेखिका से मिलती है जिनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। वह लेखिका कहती है, "तुम अपना समय बर्बाद कर रही हो , वे कभी तुम्हें बढ़ावा नहीं देंगे.""कौन वे ""पुरुष लेखक जो समीक्षाएं लिखते हैं, पत्रिकाएं निकालते हैं, प्रकाशन व्यवस्था सम्भालते हैं? तुम कभी उनका ध्यान नहीं आकृष्ट कर पाओगी ""लेकिन लेखक को तो सिर्फ लिखने से मतलब होना चाहिए ""लेखक के लेखन को पढ़ा भी जाना चाहिए "लेखिका प्रोफेसर को अपनी लिखी कहानियाँ भी दिखाती है. प्रोफेसर एक छोटे बच्चे का पिता है.उसकी पत्नी बच्चे की देखभाल को लेकर चिडचिडी रहती है. प्रोफेसर अपने अशांत घरेलू जीवन का जिक्र कर दुखी होता है,(जाने कितने उदाहरण हम सबके भी देखे जाने हुए हैं ) नायिका उसे सांत्वना देने के साथ साथ उसके प्रेमजाल में पूरी तरह गिरफ्त हो जाती है. प्रोफेसर जब अपने उपन्यास का ड्राफ्ट नायिका को पढने के लिए देता है तो नायिका ईमानदारी से उसकी कमियाँ बता देती है. प्रोफेसर को यह नागवार गुजरता है और वह उसे इमोशनली ब्लैकमेल करने लगता है कि जब तुम्हें मेरा लेखन पसंद नहीं तो मैं भी पसंद नहीं हो सकता ।हमें यह प्रेम सम्बन्ध तोडना होगा. तुम एक अच्छी लेखिका हो, तुम्हारी किताब छपेगी ,तुम मशहूर हो जाओगी मैं एक कॉलेज का एक अध्यापक मात्र रह जाऊँगा. हमारा सम्बन्ध आगे नहीं बढ़ सकता. "प्यार में डूबी नायिका कहती है, "ऐसा कभी नहीं होगा. मेरी किताब कभी नहीं छपेगी क्यूंकि मेरा लिखा कोई नहीं पढ़ेगा .आपके पास अच्छे विचार हैं . आप कहें तो मैं आपके उपन्यास को सुधार देती हूँ."प्रोफेसर सहर्ष सहमति देता है और यह सिलसिला चल निकलता है. नायिका लिखती है पर नाम प्रोफेसर का होता है.उसकी किताबें मशहूर होती जाती हैं. उसे बड़े ईनाम ,नोबल प्राइज़ तक मिल जाता है .वह बहुत दरियादिली से स्टेज से पत्नी को थैंक्यू बोलता है लेकिन पार्टी में जब एक अन्य लेखक कहता है, 'मेरी पत्नी मेरी सबसे बड़ी आलोचक है 'तो बड़ी सहजता से नायक कह देता है, 'अच्छा है मेरी पत्नी को पढने-लिखने का शौक नहीं है "नायिका जब कभी शिकायत करती है कि मैंने तुम्हारे लिए इतना कुछ किया है, दिन के आठ घंटे लिखती रही हूँ, समारोह के लिए तुम्हारे कपड़े चुनती हूँ, पार्टी में तुम्हारे साथ खड़ी रहती हूँ. नायक कहता है ,"पर मैंने तुम्हें प्यार किया है "फ़िल्म में और भी बहुत कुछ है.प्रोफेसर का बार बार अफेयर करना फिर पत्नी को ही अपराधबोध महसूस करवाते हुए माफ़ी माँगना. एक पत्रकार का सच ढूँढ़कर ,उसे उजागर करने के लिए उद्धत होना. सभी कलाकारों का अभिनय बहुत अच्छा है पर नायिका का अभिनय उत्कृष्ट है. जब स्टेज से वक्ता, नायक की लिखी किताब की तारीफ़ करते हैं तो नायिका की सजल आँखें और चेहरे पर आते-जाते भाव उजागर कर देते हैं किताब तो आखिर उसी की लिखी हुई. है. पटकथा कसी हुई है और निर्देशन बढ़िया है
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