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रागिनी मिश्रा एवं पूजा सिंह की नजर में कांच के शामियाने

 रागिनी मिश्रा ,तुमने तो निःशब्द कर दिया ।सुबह चार बजे उठ कर घर का काम खत्म करने के बाद स्कूल की प्रिंसिपल का जिम्मेवारी भरा कर्तव्य निभा, फिर एक ही सिटिंग पूरा उपन्यास भी पढ़ लिया ।पाठकों का यही प्यार बस मेरी पूँजी है और गहरी जिम्मेवारी का भी आभास करवाती है ।'शिवानी'जैसी प्रसिद्ध लेखिका का जिक्र पढ़कर तो कानों को हाथ लगा लिया , उन जैसा शतांश भी लिख पाऊं तो धन्य समझूँ खुद को ।
तुम्हें बहुत शुक्रिया और स्नेह :)

                 कांच के शामियाने


आदरणीय रश्मि दी!.

स्कूल से लौटते ही "काँच के शामियाने"आज दोपहर १ बजे मिली, ...खाना खाने के बाद से पढ़ना शुरू किया | रोज दोपहर में थक जाने के कारण सो जाती थी लेकिन किताबों का पुराना शौक और नयी किताब का हाथ में आना और उस पर आपका सशक्त लेखन..... सोने पे सुहागा| ५ बजकर ४० मिनट पर पूरी किताब शब्द ब शब्द पढकर समाप्त की, या यूं कहूं कि "जया"के जीवन की यात्रा पूरी की |
 कभी कभी लगा कि "शिवानी"का कोई प्रसिद्ध उपन्यास पढ रही हूँ | इस पुस्तक की विशेष बात कि इसने पूरा बांधकर रखा मेरे चंचल मन को..... तो गंभीर पाठक की बात ही क्या| अन्त में मेरे जैसा मस्त व्यक्ति रोया भी | 
आप वाकई प्रशंसा और बधाई की पात्र हैं|

पूजा सिंह 
 
 कुछ ही महीने पहले पूजा विवाह बंधन में बंधी है . उसकी एंगेजमेंट , शादी, की तस्वीरें देखती रहती थी .फिर एक दिन अचानक इनबॉक्स में मैसेज मिला, 'मैंने भी कांच के शामियाने 'मंगवा अली है...जल्दी ही पढ़ती  हूँ . मुझे लगा, अभी तो इसकी शादी हुई है, किसी और के जीवन की इतनी कडवी हकीकतों से क्या रूबरू होना...लिहाजा मैंने अपनी ही किताब के लिए कहा...'अभी रहने दो...बाद में कभी पढ़ लेना '...पर वो नहीं मानी...और एक दिन उसके वाल पर ये स्टेटस था :)
थैंक्यू पूजा...इतने प्यारे संदेश और फोटो के लिए :)


                      कांच के शामियाने

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 रश्मि  दी जब आपने कहा था कि बहुत सुखद नहीं है आराम से पढ़ना तो मैंने सोचा की तभी पढूंगी जब एक सिटींग में पढ़ लूँ। आज पढ़ लिया, पता नहीं कितनी बार रोई पर सबसे ज्यादा रोना आया जब जया काव्या की नोटबुक पढ़ती है।

अगर मैं अपनी जेनेरेशन की लड़की मानकर जया को देखती तो बहुत गुस्सा आता उसपर की क्यों सहा इतना, तीन बच्चे क्यों पैदा किये। पर जैसे ही मैं उसे अपने अपने पूर्वी उत्तर प्रदेश के छोटे से कस्बे से जोड़कर देखती हूँ तो पाती हूँ की ये कोई एक कहानी नहीं है, ऐसी कितनी जया को तो मैं पर्सनली जानती हूँ।

बहुत अच्छी सी किताब के शुक्रिया आपका

कहाँ गुम हुआ लाखों का सावन (प्रभात खबर में कवर स्टोरी )


'प्रभात खबर 'की पत्रिका सुरभि में मेरी लिखी कवर स्टोरी

जब तपती धरती पर बारिश की फुहारें पड़ती है और ठंढी हवाएं चलने लगती हैं तो सबके मन प्राण शीतल हो जाते हैं. शायद ही कोई ऐसा हो, जिसके चहरे की तनी रेखाएं कोमल ना पड़ जाएँ और चेहरे पर मुस्कराहट लिए वह ‘सावन’ का स्वागत ना करे. यही खुशनुमा अहसास दिलाने के लिए फिल्मों में भी सावन के गीत शुमार किये जाते रहे हैं . पहले पारिवारिक फ़िल्में ज्यादा बनती थीं और उसमे सुख दुःख ,मिलन-विछोह जैसी भावनाएं समान रूप से समाहित रहती थीं . कभी मिलन तो कभी विरह को सावन के गीतों के माध्यम से व्यक्त किया जाता था . दरअसल सावन एक मूड को परिलक्षित करता है ,एक माहौल के निर्माण का. जब प्रिय पास नहीं हो और उसकी याद दिल में जागे ,ऐसे में सावन का मौसम हो तो रिमझिम बारिश के साथ विरह ज्वाला और भी तेज हो जाती है. और फिल्म निर्देशक एक प्यारे से गीत के साथ ऐसे दृश्य को जीवंत कर देते हैं .
1944 में ‘रतन’ फिल्म में दीनानाथ मधोक का लिखा और जोहराबाई अम्बालावाली का गाया यह गीत बहुत पसंद किया गया .संगीत निर्देशन नौशाद का था और यह फिल्म उनकी पहली म्यूजिकल हिट मानी जाती है.
“रुमझुम बरसे बदरवा ,मस्त ह्वायें आईं

पिया घर आजा, आजा ओ मेरे राजा

सावन कैसे बीते रे ,मैं यहाँ तुम कहाँ  
हमको याद ना आये रे, याद सताए तेरी “

महाकवि कालीदास ने सावन के बादलों से बिनती की थी कि वह कवि की दशा का बयान ‘कवि पत्नी’ से करे . वैसे ही 1955 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘आज़ाद ‘ में मीनाकुमारी सावन के बादलों से याचना करती है. राजेन्द्र कृष्ण के बोलों को संगीत से संवारा ‘सी रामचन्द्र ‘ ने ,आवाज़ कंठ कोकिला लता मंगेशकर की
जा री जा री ओ कारी बदरिया

मत बरसो री मोरी नगरिया

परदेस गए हैं सांवरिया

1960 में आई फिल्म जिसका नाम ही था ‘बरसात की रात ‘ .इस फिल्म में भी नायिका की शिकायत है,
‘गरजत बरसत सावन आयो रे

लायो ना संग हमारे बिछड़े बलमवा

सखी क्या करू हाय .
साहिर लुध्यान्वी के शब्दों को रोशन ने ऐसे संगीत में बाँधा कि यह गीत अमर बन गया है.

सावन के गीतों में केवल अपने प्रिय को ही नहीं .अपने बिछड़े गाँव , झूले झूलती सखियाँ ,लहलहाते खेत सबको याद किया जाता है. 1963 में रिलीज़ हुई फिल्म बंदिनी का यह गीत आज भी आँखें भिगो देता है .शैलेन्द्र के मर्मस्पर्शी शब्दों को सचिन देव बर्मन ने उतने ही मार्मिक धुन में बाँधा है. आशा भोंसले की आवाज़ में गाया यह ग़ीत सबके मन में एक टीस जगा जाता है .
“अबके बरस भेज भैया को बाबुल

सावन में लीजो बुलाये रे “

सावन के गीतों में केवल विरह-विछोह ही नहीं व्यक्त होता ,जब प्रिय पास हों तो सावन का मौसम मन में उमंगे जगा देता है. हर्ष और उल्लास में लिपटे मन के लिए सावन में यह पृथ्वी स्वर्ग सी सुंदर बन जाती है .जाहिर है, ऐसे मनोभावों को व्यक्त करने वाले गीत भी अलग मिजाज़ के होंगे .आज भी बारिश की पहली फुहार पड़ते ही 1960 की फिल्म ‘परख’ का यह गीत दिलो-दिमाग पर दस्तक दे जाता है . शैलेन्द्र के लिखे इस गीत की धुन बनाई है सलिल चौधरी ने और गाया है लता मंगेशकर ने
“ ओ सजना बरखा बहार आई

रस की फुहार लाई

नयनों में प्यार लाई ...ओss सजना “
मोहम्मद रफ़ी और गीता दत्त की आवाज़ में 1960 कि ही फिल्म काला पत्थर का यह गीत बहुत ही खुशनुमा सा है
"रिमझिम के तराने लेकर आई बरसात
याद आये किसी से वो पहली मुलाक़ात "

1958 में फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी ‘ का भी एक चुलबुला सा गीत है, ‘इक लड़की भीगी भागी सी ...सोई रातों में जागी सी “घनघोर बारिश हो रही है और उसमें मधुबाला की कार खराब हो जाती है .मेकैनिक किशोर कुमार के नटखटपन और भीगी हुई मधुबाला के दिव्य रूप ने इस गीत को अमर कर दिया है. स्क्रीन पर देखने और स्क्रीन से अलग सुनने में भी यह गीत बहुत प्यारा लगता है. मजरूह सुलतानपूरी ने लिखा, किशोर कुमार ने गाया और एस.डी. बर्मन ने इसे सुरों में ढाला है.

1955 में बनी फिल्म ‘श्री चार ४२० ‘ के इस गीत में बारिश का जिक्र नहीं है .परन्तु गीत सुनते ही एक छाता के अंदर भीगते राजकपूर और नर्गिस की छवि साकार हो जाती है .रास्ते से रेनकोट पहने तीन बच्चे गुजरते हैं जो राजकपूर के बेटे-बेटी ही थे .मन्ना डे और लता मंगेशकर ने शैलेन्द्र के लिखे गीत को गाया है और संगीत शंकर जयकिशन का है .
“प्यार हुआ ,इकरार हुआ है
प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल
कहता है दिल ,रस्ता मुश्किल

मालूम नहीं है, कहाँ मंजिल “
1960 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘बरसात की रात’ के इस गीत में बारिश का ही जिक्र है पर फिल्माए गए दृश्य में बरसात कहीं नहीं है .बल्कि नायक एक रेडियो स्टेशन पर नज्म पढ़ रहा है और नायिका रेडियो पर सुन रही है पर गीत सुनते हुए श्रोता की आँखों में बरसते सावन में एक भीगी लडकी की छवि ही तैर जाती है.
“जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात

एक अनजान हसीना से मुलाकात की रात “

सावन के सुहाने मौसम पर आधारित कई गीत आये पर 1967 की फिल्म ‘मिलन ‘ के इस गीत को अतिशय लोकप्रियता मिली .इस गीत में सावन के महीने का पूरा सौन्दर्य उभर आया है .
”सावन का महीना पवन करे शोर

जियरा झूमे ऐसे जैसे बनमा नाचे मोर “

सावन में सिर्फ प्यार, मिलन, विरह जैसी भावनाएं ही नहीं मचलती बल्कि संगी साथियों संग झूला झूलने , मेहँदी लगाने, गीत गाने ,मेले जाने के लिए भी मन उमगता है .1967 की फिल्म ‘आया सावन झूम के ‘ के इस गीत में इसी ख़ुशी का इजहार है ,
“बदरा छाये कि झूले पड़ गए

हाय कि मेले लग गए

कि आया सावन झूम के”

प्रेमी जोड़े जब सपनों की  दुनिया में खोकर अपने घर की कल्पना करते हैं तब भी मनभावन सावन को जरूर याद रखते हैं .’ 1970 की फिल्म जीवन मृत्यु का यह गीत बहुत ही कर्णप्रिय है
झिलमिल सितारों का आंगन होगा

रिमझिम बरसता सावन होगा “
1970 की ही फिल्म ही “अभिनेत्री” का नटखट सा यह गीत बहुत मधुर है .
ओ घटा सांवरी

थोड़ी थोड़ी बावरी

हो गई है बरसात क्या

हर सांस है बहकी हुई

अबकी बरस ये बात क्या “
1979 में फिल्म मंजिल का यह गीत “रिमझिम गिरे सावन.. सुलग सुलग जाए मन “जैसे हर बरखा प्रेमी के दिल की बात कहता प्रतीत होता है . इसी वर्ष रिलीज़ हुई फिल्म ‘जुर्माना ‘ का यह गीत भी बहुत बहुत मधुर है ,”सावन के झूले पड़े हैं...तुम चले आओ “

आने वाले वर्षों में फिल्म का स्वरुप बदलता गया .पारिवारिक  फिल्मों की जगह एक्शन और प्रतिशोध की फिल्मों ने ले ली . गीत-संगीत का रुप भी बदल गया . अब तेज संगीत पर गाने की धुनें बनने लगीं .गीत के बोल गौण हो गए .और इसका असर सावन पर आधारित गीतों पर भी पड़ा. फिल्मों से सावन का माहौल गायब होने लगा .पर बारिश फिर भी बनी रही . 1982 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘नमकहलाल ‘ का यह गीत बहुत मशहूर हुआ पर सुमधुर गीतप्रेमियों को नहीं लुभा सका
“आज रपट जाएँ तो हमें न उठइयो

हमें जो उठइयो तो खुद भी रपट जीयो “

ऐसा ही गीत 1983 की फिल्म बेताब का भी है बारिश में भीगते नायक नायिका हैं पर गीतों की वो खूबसूरती गायब है
“बादल यूँ गरजता है, डर कुछ ऐसा लगता है
चमकी चमक के लपक लपक के

ये बिजली हम पर गिर जायेगी “

अब फिल्मों में बारिश भी होती, गीत गाते नायक नायिका भी भीगते ,पर गीत कालजयी नहीं बन पाता .1994 में आई फिल्म ‘मोहरा’ का ये गीत उस वक्त फिल्म के साथ बहुत हिट हुआ था .
“टिप टिप बरसा पानी 
पानी ने आग लगा दी “
अब ज्यादातर फिल्मों की पृष्ठभूमि शहर की होती .गीतों में झूले, लहलहाते खेत ,घुमड़ते बादल गायब होने लगे . सडकों पर बरसते पानी का ही दृश्य फिल्माया जाता . 1997 में फिल्म ‘दिल तो पागल है ‘ में शाहरुख और माधुरी बच्चों एक साथ झमाझम बरसते पानी में ये गाना गाते हैं
“कोई लडकी है ,जब वो हंसती है

बारिश होती है

छनर छनर छुम छुम “

फिर भी बीच बीच में कुछ सुमधुर गीत आये .गुलज़ार का लिखा फिल्म इजाज़त का गीत ...
छोटी सी कहानी से

बारिशों के पानी से

सारी वादी भर गई “
सुरेश वाडेकर की सोज़ भरी आवाज़ में गाया शिव हरी के संगीत से सजा फिल्म ‘चांदनी’ का यह गीत बहुत ही कर्णप्रिय है
“लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है “
‘गुरु’ फिल्म का गीत ‘बरसों रे मेघा बरसों ‘ का फिल्मांकन और गीत दोनों ही बहुत खुबसूरत हैं .
फिल्म ‘फ़ना’ ...बूंदों की साजिश है ‘भी बारिश को बखूबी चित्रित करता है .
पिछले तीन दशक  से हमारे समाज की रूपरेखा भी बदल गई है . लोग गाँव छोड़कर शहरों में बसने लगे हैं .आपसी रिश्ते- नाते-दोस्त कम होते जा रहे हैं .अब पहले सा प्यार ,अपनापन ,दोस्ती जैसी भावनाएं जिंदगी से विदा हो गईं हैं इंसान अपने आप में सिमटता जा रहा है. जिंदगी मशीनी होती जा रही है और इन सबका अक्स हमारी फिल्मों पर भी नजर आया .

फिल्मों से गाँव , लहलहाते ,खेत हरियाली गायब हो गई .अब फिल्मों में दौड़ती गाड़ियां, आग उगलते हथियार, आक्रोश से भरा हीरो और पश्चिमी धुन पर थिरकते ढाई सौ लोगों के साथ नृत्य करते नायक नायिकाएं ही नजर आने लगे. इन फिल्मों में सावन के गीतों की गुंजाइश ही नहीं बची . जब नायिका बादल को उलाहना देती है , नायक बारिश में भीगी अपनी प्रेमिका को याद करता है या कोई बहन अपने पिता से सावन में अपने भैया को भेजने की अर्ज करती है. अब फिल्मों में ऐसी सिचुएशन ही नहीं होती .सब कुछ इंस्टैंट और तेज गति से होने लगा है .अब बारिश  पर गीतकार ,संगीतकार से ज्यादा कैमरामैन का प्रभाव नजर आता है. ढेर सारे छाते के बीच लम्बा रेनकोट पहने  कोई खूनी,  घनघोर बारिश के बीच हुआ मर्डर ..पानी के साथ बहता खून या फिर पारदर्शी वस्त्रों में नाचती नायिका. ...इन सबके बीच,पहले वाली कोमल भावनायें नज़र नहीं आती ,जिसपर आधारित गीत अमर  हो जाते थे .

और जब विछोह का दर्द या मिलन की खुशी गीतों में नहीं होती तो वे गीत दिल की गहराइयों में अपनी जगह नहीं बना पाते. यही वजह है कि पुराने गीतों के तुलना में आज के गीत बहुत फीके नजर आते हैं और जब तक फिल्म चलती है, तभी तक गीत भी बजते हैं और फिर गुमनामी के अँधेरे में खो जाते हैं .

आजकल के युवा मीका सिंहके इन गीतों पर थिरक रहे हैं .जिसमें बस सावन शब्द के लिए ही प्रयुक्त किया गया है .इस से सजीले सावन का कोई सम्बन्ध नहीं .
सावन में लग गई आग
दिल मेरा हाय

निश्चय ही फिल्मों में या उनके गीतों में पहले वाली मधुरता अब नहीं रही . वैसे तो फिल्म ‘दिल दिया दर्द लिया ‘ के इस गीत का ही अनुसरण करना चाहिए . दिलीप कुमार और वहीदा रहमान पर यह खुबसूरत गीत फिल्माया गया है
“सावन आये या ना आये  
जिया जब झूमे सावन है “

'काँच के शामियाने 'पर मंजू रॉय जी की टिप्पणी





Manju Roy ji अंग्रेजी साहित्य की प्राध्यापिका हैं ।उन्होंने विश्व साहित्य पढ़ रखा है और पढ़ाती भी हैं । 'काँच के शामियाने 'पर उनकी प्रतिक्रिया पढ़ते वक्त मन थोडा आशंकित भी था और यह जानने की उत्सुकता भी थी कि उन्हें किताब कैसी लगी ।उन्हें किताब पसंद आई, ये देख सचमुच धन्य हो गई मैं :)

'बिहार की बेटी का एक कृतज्ञता ज्ञापन है ये किताब.'..यह पढ़कर तो नतमस्तक हूँ, मंजू दी
आप जैसी विदुषी की प्रतिक्रिया...लिखने का उत्साह भी बढ़ाती है और एक गहरी जिम्मेवारी का भी अहसास कराती है. ..बहुत शुक्रिया आपका...स्नेह बनाए रखें :)

'काँच के शामियाने '

दो दिन पूर्व रश्मि रविजा द्वारा लिखित उपन्यास,काँच के शामियाने की प्रति मिली।कॉलेज में कुछ व्यस्तता के बावजूद जल्दी से उपन्यास ख़त्म किया,जो मेरी पुरानी आदत है।

उपन्यास पढ़कर ऐसी अनुभूति हुई कि कितनी ही जया मेरे इर्द गिर्द हैं जो उपन्यास की नायिका की तरह परिवार,समाज और बच्चों की सोंचते सोंचते काफी समय बाद साहस करती हैं एक ऐसे विवाह से बाहर आने की जहाँ उन्हें दुःख,पीड़ा,अपमान,अवमानना,शारीरिक प्रताड़ना और आंसुओं के सिवा कुछ नहीं मिला।मुझे लगता रहा जया ने इतनी देर क्यों की, फिर लगा इसके लिए हम और हमारा समाज जिम्मेवार है जो एक लड़की को घुट्टी में यही पिलाता है कि तुम्हारा ससुराल ही तुम्हारा घर है और शादी को बचाये रखने की जिम्मेदारी औरत की है,मर्द की नहीं।एक लड़की तब तक बर्दाश्त करती है जब तक उसके दर्द की इन्तहा न हो जाये।

जया के पति राजीव की तरह काफी पुरुष हैं जो इस एहसास के साथ बड़े हुए हैं कि वो लड़का है,जिसके लिए सात खून माफ़।कमाऊ पूत के अवगुण परिवार नहीं देखता।

उपन्यास में वर्णित जगहें,हाजीपुर,सीतामढ़ी,बेगुसराय,खगड़िया सब इर्द गिर्द हैं मेरे और वहां मैं जाती रही हूँ।
रश्मि ने जिस बारीकी से कॉलोनी लाइफ का चित्रण किया है वह काबिलेतारीफ है।देसी बोली जो इधर बोली जाती है,वह कहानी को और प्रमाणिक बनाती है।

मुम्बई रहकर भी रश्मि ने अपने प्रदेश को अपनी यादों में बसा रखा है,बिहार की बेटी का एक कृतज्ञता ज्ञापन है ये किताब।इसे पढ़ कर यदि एक जया भी अपनी जिंदगी को दुबारा शुरू करने की हिम्मत कर ले तो वो रश्मि की कामयाबी होगी। हमें अपनी बेटियों को बताना होगा कि हम उन्हें भार नहीं समझते और उनके हर फैसले में उनके साथ हैं।बेटियाँ इस दुनिया की खूबसूरती हैं।उम्मीद है रश्मि की दूसरी किताब जल्द ही सामने होगी।

बहुत बहुत बधाई,रश्मि, तुमने एक बेटी होने का फर्ज बहुत खूबसूरती से अदा किया है।

अनजानी राह


अनिमेष ऑफिस से एक हफ्ते की छुट्टी लेकर अपने घर आया हुआ था . निरुद्देश्य सा सड़कों पर भटक रहा था .उसे यूँ घूमना अच्छा लगता. जिन सड़कों पर सैकड़ों बार पैदल चला था.तपती  दोपहरी और ठिठुरती ठंढ में घंटो साइकिल चलाई थी. इन पर चलते हुए हमेशा कहीं पहुँचने की जल्दी होती थी.पर आज खरामा खरामा चलते हुए जैसे सडकों की आवाज सुन रहा था और वे मानो शिकायत कर रही थीं,इतने दिन लगा दिए वापस लौटने में . पर बस सड़कें ही जानी पहचानी  रह गयी थींवरना इस छोटे से शहर में बहुत कुछ बदल गया था. मॉल्स ,मैकडोनाल्डस ,बड़े बड़े शो रूम खुल गए थे. सडकों के किनारे छोटे छोटे दुकानों का जमघट सा लग गया था. जानी पहचानी दुकानों को ढूंढना पड़ता.  पहले जहां सडकों पर इक्का दुक्का कार दौड़ती नज़र आती थी, अब सड़कों पर ट्रैफिक जाम होने लगे थे . बड़ी तेजी से बदल रहा था शहर उसका, पर उसे अपना वो पुराना ऊंघता  हुआ  शहर ही प्यारा और अपना सा लगता .
फिर अनिमेष ने सर झटक दिया ,’क्या वो अपने शहर को तरक्की करते हुए नहीं देखना चाहता ‘. तभी हवा की एक लहर आई और अपने साथ अदरक इलायची वाली चाय की खुशबू भी लेती आई. ये तो रघु काका के चाय की खुशबू है. इधर उधर देखा तो पाया,सामने ही दो चमकते जनरल स्टोर के बीच में रघु काका की चाय की टपरी छुप सी गई थी. पर थी बिलकुल जस की तस .वही सामने लकड़ी के तख्ते पर बिस्कुट के बड़े बड़े डब्बे और एक तरफ स्टोव पर अदरक-इलायची वाली ,उबलती चाय. स्कूल जाते वक़्त हमेशा इसी राह से गुजरना होता .जब स्कूल में था,तब चाय तो नहीं पीता था, आदत तो अब भी नहीं थी. पर ये चाय की खुशबू  बड़ी जानी-पहचानी सी लगती और जब भी अपने शहर आता, थोड़ी देर बाहर ही खडा, इस खुशबू को अपने अन्दर भरता रहता और फिर अन्दर चला जाता.

आज भी थोड़ी देर बाहर खड़े  रहकर जैसे ही अन्दर गया .एक तरफ कुर्सी पर बैठे उसके स्कूल के हिन्दी  सर दिख गए. वे तो शायद उसे नहीं पहचान पाते . उसने सामने जाकर 'नमस्ते सर'कहा और सर ने अपनी ऐनक ठीक करते नज़रें उठा कर देखा और आदतन बोल गए,खुश रहो बेटा...कैसे हो ?”

ठीक हूँ सर...आप कैसे हैं ?”

तुssम ..अनिमेष हो न...अच्छाss..अच्छाss..रीयूनियन के लिए आये हो. देख कर बहुत अच्छा लगता है कि तुमलोग अपने स्कूल को भूले नहीं हो. अच्छा रिवाज़ शुरू हुआ है. हमलोग भी अपने पुराने छात्रों से मिल लेते हैं “.सर ने उसे पहचान लिया था .

नहीं सर, मैं तो यूँ ही घर आया हुआ था. हमारी बैच का रीयूनियन है?मुझे नहीं पता था

कल ही तो है. जरूर आना बेटा. शाम चार बजे है, बहुत सारे छात्र आते हैं. तुम सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगेगा. चलो अब चलता हूँ...कितने हुए चाय के?सर अपने कुरते की जेब में हाथ डालने ही वाले थे कि अनिमेष ने रोक दिया,सर प्लीsज़

आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. सर हंस दिए,ठीक है ठीक है...आज की चाय तुम्हारी तरफ से

सर तो चले गए पर वो बड़े पेशोपेश में पड़ गया .वो जाए या नहीं , उसे इस रीयूनियन की कोई खबर नहीं थी. खबर भी कैसे होती, वो किसी सोशल नेटवर्क साईट पर तो था नहीं. उसे ये सब फ़िज़ूल का समय बर्बाद करना लगता. जिनलोगों से संपर्क में रहना चाहता उनके फोन नंबर तो उसके पास थे ही. रोज रोज बात नहीं होती पर एक दूसरे की ज़िन्दगी में क्या चल रहा है , इसकी खबर होती थी. दो साल पहले रंजन ने बताया तो था . अनिमेष से पूछा भी था बल्कि जोर भी डाला था रीयूनियन में चलने के लिए .स्कूल के सभी पुराने छात्रों ने फेसबुक पर अपने स्कूल की  कोई कम्युनिटी बनाई थी ,और वहीँ रीयूनियन का प्लान किया था .वह तो फेसबुक पर है ही नहीं.पहली बार रंजन ने बताया था .पर उसने मना कर दिया. इतना ज्यादा किसी से मिलने की चाह नहीं थी. 
और कुछ औपचारिक बातों और बनावटी मुस्कुराहटों के लिए वो छुट्टी लेकर जाए, उसे मंजूर नहीं था. बाद में  उसकी अनिच्छा देख फिर रंजन ने भी जिक्र नहीं किया. 

पर आज तो इसी शहर  में था. उसके पास समय भी था ..अनिमेष ने तुरंत रंजन को फोन मिलाया . रंजन  इस बार नहीं आ रहा था पर उसने अखिल का फोन नंबर दिया .जो इस आयोजन का कर्ता-धर्ता  था . अखिल तो उसका नाम सुनते ही उछल पडा,अरे हमारे बैच के स्टार, तुम शहर में हो और किसी को खबर ही नहीं. तुम्हे तो आना ही पड़ेगा .मैं  लेने आउंगा...किसी 'ना'का तो सवाल ही नहीं.

उसने आश्वस्त किया , “ना लेने आने की जरूरत नहीं. मैं खुद समय से पहुँच जाऊँगा

अब जब जाने का मन बना लिया तो जैसे वो स्कूल के दिनों में ही पहुँच गया . कितने बेफिक्री भरे दिन थे वे, बस पढाई और क्रिकेट दो ही शौक या कहें जूनून था उसके जीवन में .

सारे टीचर्स उसे बहुत मानते थे क्यूंकि मन लगाकर पढ़ाई करता ,समय पर होमवर्क करता ,कोई शैतानी नहीं करता और क्लास में फर्स्ट तो खैर आना ही था . घर आकर स्कूल बैग घर पर पटकता और फिर माँ जो भी देती बिना नखरे के खा कर खेल के मैदान में . क्यूंकि नानुकुर करने में समय बर्बाद होता और उसे अपने खेल का एक मिनट भी बर्बाद करना पसंद नहीं था .अंधेरा होने के पहले ही घर वापसी .फिर पढ़ाई और खाना खा कर सो जाना .इस रूटीन में कोई बदलाव नहीं आता.
टीचर्स का, अपने आस-पास के बड़े बूढों का तो वह बहुत प्यारा था पर उसकी उम्र के बच्चे उसे ज्यादा पसंद नहीं करते,क्यूंकि हर वक़्त उन्हें अनिमेष का उदाहरण दिया जाता. "देखो, कितना अच्छा लड़का है .कितना मन लगाकर पढाई करता है ".स्कूल में भी उस से सब थोडा दूर दूर रहते .सिर्फ परीक्षा के दिनों में उसके आस-पास मंडराते रहते. अनिमेष मैथ्स का ये सवाल समझा दो’, ‘हिस्ट्री के नोट्स दे दो’, ‘जरा ग्रामर में हेल्प कर दो’. लडकियां भी अपने नोट बुक्स लेकर आगे-पीछे घूमती रहतीं. वो सबकी हेल्प कर देता और फिर वहाँ से उठ कर चल देता. किसी से भी जरूरत से ज्यादा बातें नहीं करता. उसे भी गुस्सा आता बस एग्जाम के दिनों में ही सबको अनिमेष की याद आती है.  

पर एक बार कुछ ऐसा हुआ कि वो एक दिन में ही स्कूल का हीरो बन गया
एक दिन वह स्कूल से निकल घर की तरफ बढ़ा ही था कि उसके क्लास की अंकिता दौड़ती हुई उसके पास आयी, ‘अनिमेष अनिमेष...देखो न सुरेश को कुछ लोग पीट रहे हैं.उसे इन सबमे नहीं पड़ना था फिर भी उसने सोचा कोई मुसीबत में है, उसकी मदद करनी चाहिए . स्कूल के पीछे की तरफ दो लड़के मिलकर एक दुबले-पतले मरियल से लड़के सुरेश को मार रहे थे . अनिमेष ने उनमे से एक से कहा, “दो लोग मिल कर एक को क्यूँ मार रहे हो...जाने दो न उसे

तुम्हे क्या है....जाओ तुम यहाँ से उस लड़के ने अनिमेष को धक्का देकर हटाते हुए कहा .

इस तरह किसी को मारना ठीक नहीं...चलो सुरेश..मेरे साथ चलोकहते अनिमेष ने सुरेश को अपने साथ आने का इशारा किया.

सुरेश ने आशा भरी आँखों से उसे देखा और उठ कर उसकी तरफ बढ़ा .तभी एक लड़के ने सुरेश का कॉलर पकड़ लिया,किधर चला..

अनिमेष के फिर से कहने पर कि छोड़ दो लड़के को एक लड़का उसकी तरफ बढ़ा और उसे धक्का देते हुए बहुत ही बद्तमीजी से कहा, “ जा जा किताबों में मुहं छुपा कर बैठ और कुछ बोला तो सारे दांत तोड़ कर हाथ में दे दूंगा

इतना सुनते ही अनिमेष के अन्दर गुस्से का एक सैलाब उठा.उसने थोड़ी दूर पर खड़ी अंकिता को अपना बैग थमाया ,और तूफ़ान की तरह वहीँ से दौड़ते हुए आया और उस लड़के को जोर से धक्का दे जमीन पर गिरा दिया. दूसरा लड़का हतप्रभ रह गया और उसकी तरफ बढ़ा पर अनिमेष पर जैसे गुस्से का भूत सवार हो गया था . ज़िन्दगी में पहली बार किसी ने उस से इतनी बद्तमीज़ी से बात की थी . उसके अन्दर जैसे पांच लोगों की ताकत आ गयी थी. वैसे भी घंटो क्रिकेट के अभ्यास से उसका शरीर मजबूत हो गया था. जबकि ये लड़के न तो पढ़ते थे और न ही खेल में कोई रूचि थी उनकी . दो दो साल से फेल हो रहे थे और सारा दिन कोने में बैठ हंसी मजाक करते, फ़िल्में देखने जाते या फिर पत्ते खेलते. उनके शरीर में जान नहीं थी. अनिमेष अंधाधुंध हाथ पाँव सब चला रहा था . उसकी शर्ट के बटन टूट गए, शर्ट भी फट गयी . मार-पीट शायद और थोड़ी देर चलती पर इतने में छोटी सी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी किसी ने स्कूल में जाकर बता दिया था और दो टीचर दौड़ते हुए आये , और बहुत फटकारा उन्हें.
अनिमेष को भी डांट लगाई. अनिमेष ने अपना बैग लिया और घर की तरफ चल पडा.

घर पर छोटे भाई ने पहले ही जाकर बता दिया था .माँ ने डांटा , “अब यही सब करो. तुम्हे क्या जरूरत थी बीच में पड़ने की. नयी शर्ट भी फट गयी (शर्ट फट जाने का अफ़सोस तो उसे भी था. तब साल में दो बार ही कपड़े बनते थे होली और छठ में. फिर धुल धुल कर उनके रंग उतर जायें या वे फट जाएँ ,उन्हें ही सिलवा कर पूरे साल काम चलाना पड़ता था )

पर अभी अनिमेष को शर्टके फट जाने के दुःख से ज्यादा दुःख माँ की डांट से हो रहा था. गुस्से में बोला, तो क्या करता उस लड़के को मार खाने देता ?? अकेले लड़के को सब पीट रहे थे

पर माँ  से तो इतना कह गया. जब शाम को पिताजी ऑफिस से आये ,उनके कानों में भी बात पड़ी और उन्होंने भी डांटा तब अनिमेष सर झुकाए बस सुनता रहा . मन ही मन सोच रहा था , किसी की मदद करना क्या इतनी बुरी बात है ,आज तक सबने तारीफ़ ही की पर अब टीचर, माँ,पापा सब डांट रहे हैं . बस छोटा भाई बहुत खुश था, सोते वक़्त धीरे धीरे बोल रहा था, “क्या मारा भैया तुमने, उन्हें.... धूल चटा दी...बड़ा मजा आया

पर सबसे डांट सुनकर अनिमेष का मन खिन्न हो गया था, उसने भाई को डांट दिया ,”सो जाओ चुपचाप

सुबह सुना , पापा बगल वाले शेखर दादा से कह रहे थे,किसी की रक्षा के लिए सामने आना बहुत बड़ी बात है , अच्छा किया अनिमेष ने

शेखर दादा तो पहले ही उसे बहुत मानते थे ,कहने लगे..लोरका तो आपका हीरा है हीरा

रात का मलाल उसके मन से मिट गया . खुश खुश स्कूल गया तो पाया , सबकी नज़रें उसपर ही टिकी हैं. सब कल की ही बातें कर रहे हैं , क्लास के लड़के-लड़कियों ने उसे घेर लिया ,”सुना बहुत मारा तूने उन लड़कों को किधर छुपाकर  रखा था अपना ये रूप..

तुम्हारा बैग कितना भारी है अनिमेष ..क्या क्या भरे रहते हो इसमें. इतनी देर उठाये उठाये मेरे हाथ दुःख गए अंकिता बार बार ये दुहरा कर सबको जता रही थी कि उसने अनिमेष का बैग उठा रखा था .

अनिमेष को इन सबका इतना अटेंशन पाकर ख़ुशी कम नाराज़गी ज्यादा हो रही थी. इतने मन से पढ़ाई करने पर, हमेशा फर्स्ट आने पर सबने इतनी सम्मान भरी नज़रों से नहीं देखा और ज़रा सी मार-पीट करते ही उसकी इज्जत बढ़ गयी . 

उसने इन सबको ज्यादा तवज्जो नहीं दी. उसे ज़िन्दगी में बहुत कुछ करना था, बहुत आगे जाना था. उसके बड़े बड़े सपने थे और बहुत जल्दी उसे पता चल गया था ,उन सपनो के ताले की कुंजी थी पढाई’ . अच्छी पढ़ाई से ही उसे आई आई टी  में एडमिशन मिल सकती थी और उसके बाद तो फिर स्काई इज़ द लिमिट उसने खुद को पढ़ाई में झोंक दिया. अंतिम छः महीने तो उसने क्रिकेट को भी अलविदा कह दिया. एक जूनून सा सवार हो गया था .सुबह जल्दी जाग कर रात में देर से सोता. खाना भी पढ़ते पढ़ते ही खाता. कभी कभी भाई उसकी थाली में से रोटी उठा लेता और जब वो खाली थाली में हाथ घुमाता रहता तो जोर से हंस पड़ता. माँ भाई को डांटती और फिर उसकी भी मनुहार करतीं,“खाते समय तो किताब अलग रख दे.” पर उसका ध्यान तो किताब पर रहता,ये सब जैसे उसे सुनाई ही नहीं देता.  

आशानुसार रिजल्ट भी आया .एक प्रतिष्ठित कॉलेज में उसका एडमिशन हो गया .घर से हॉस्टल में आ गया पर इसके सिवा और कुछ नहीं बदला .यहाँ भी वो सिर्फ पढाई से ही मतलब रखता . और जब कोर्स बुक से ऊबता तो लाइब्रेरी की खाक छानता . चार साल कट गए और अंतिम वर्ष में एक बढ़िया कम्पनी में जॉब भी मिल गयी .

अब उसकी असली ज़िन्दगी की जंग शुरू हुई. अब तक सब कुछ बहुत आसान था.  बस पढ़ाई करना,इम्तहान देना और क्रिकेट मैच देखना . किताबों से बाहर की दुनिया उसने देखी नहीं थी और लगा अचानक जैसे किसी अनजान देश में चला आया है. सब कुछ नया सा लगता ,उसे.अब तक अपने पहनावे के प्रति बेपरवाह था. दो जींस और चार टी शर्ट में ही साल गुजर जाता. पर अब पूरी बांह की शर्ट,ट्राउजर और चमकते जूते में कैद होना पड़ता. प्रत्येक शुक्रवार को सब अलग अलग टी शर्ट में नजर आते. उसे भी मजबूरन खरीदनी पडती. सबकी भाषा भी अलग सी ही लगती. उसकी अंग्रेजी अच्छी थी पर शुद्ध किताबी अंग्रेजी थी . ऑफिस की शब्दावली ही अलग थी . कौन कौन से शब्दबोलते ये लोग ,कूल,ब्रो,डूड,चिल्ल,चिक, ग्रामर का भी घालमेल कर देते. ये सारे शब्द बोल तो अब भी नहीं पाता वह ,पर अब अटपटा नहीं लगता. आदत पड़ रही थी. खाने-पीने में भी बर्गर,सैंडविच,पिज़्ज़ा,पेस्ट्री की आदत डाल रहा था . आये दिन ऑफिस में किसी न किसी का बर्थडे होता और फिर यही सब चीज़ें मंगवाई जातीं. महानगर की जीवनशैली ही अलग थी. हर वीकेंड्स पर ये लोग फिल्म-पार्टी-पिकनिक का प्लान बना लेते. फिल्म और पिकनिक के लिए फिर भी वह साथ चला जाता पर पार्टी के लिए तैयार नहीं होता. सब जम कर पीते और डांस करते. 

दोनों ही उसके वश का नहीं था . वह अपनी तरह से अपनी छुट्टियां बिताता. अपने तरीके से शहर घूमता ,कभी भी कोई ट्रेन पकड़ कर किसी छोटे से स्टेशन पर उतर जाता ,फिर वहाँ से किसी गाँव में चला जाता .

एक बार यूँ ही खेत के किनारे खड़ा एक किसान को हल चलाते देख रहा था.  खेत में गोल गोल चक्कर लगाते किसान दो तीन बार पास से गुजरा और फिर पूछ ही लिया.."क्या देख रहे हो भैया ?? "और उसने अचानक से कह दिया.."मैं एक बार हल चला कर देखूं ? "

किसान  हंसने लगा और इशारे से उसे बुला लिया. पहली बार हल चला कर उसे  बहुत मजा आया. थोड़ी देर बाद किसान बोला, "बस भैया...अब मैं घर जाउंगा...रोटी खाने "फिर थोडा ठहर कर हिचकते हुए बोला,"आप साथ चलोगे ?" 

किसान ने बैलों को एक बैलगाड़ी में जोता और घर की तरफ चल दिया. अनिमेष भी बैलगाड़ी पर बैठ गया . संकरी सी पगडंडी पर हिचकोले खाती बैलगाड़ी . दोनों तरफ लहलहाते खेत किसी और ही दुनिया का आभास देते. फूस की झोपडी थी पर साफ़ सुथरी .सामने की जगह मिटटी से लीपी हुई थी. एक तरफ एक चारपाई खड़ी की हुई थी. किसान ने चारपाई बिछा दी और बोला, "आप बैठो बाबू ..."
पास ही अमरुद के पेड़ पर चढ़ी दो छोटी लडकियां  दौड़ती हुई पास आ गयी,"बाबा आ गए...बाबा आ गए  "

फिर उसे देख सहम कर थोड़ी दूर पर ही ठिठक गईं .अनिमेष,उन्हें पास बुला कर उनका नाम पूछने लगा.

तब तक किसना बैलों को दाना डाल कर चापाकल से हाथ-पैर धोने लगा.
वह भी हाथ मुहं धोने उठ आया .

हाथ मुहं धोकर आया तो देखा चारपाई पर  दो बड़े से थाल में करारी सिंकी दो मोटी रोटियाँ, चटनी और प्याज रखे थे .किसान  की पत्नी पल्लू को दांतों से पकडे पास ही एक बड़े से लोटे में पानी लिए खड़ी थी .

"बाबू जो रुखा सूखा हम खाते हैं वही आपके लिए भी है.."

रोटियाँ और चटनी देख उसे भूख  लग आयी थी. उन्हें धन्यवाद कहना अजीब औपचारिक सा लगा. इसलिए जल्दी से थाली खींच कर एक टुकड़ा रोटी का चटनी में  लगाकर मुहं में डाला और बोला, "बहुत स्वाद है...बड़ी अच्छी बनी है "अनिमेष सोचने लगा. स्वाद के लिए बस भूख होनी चाहिए. जिन्हें भूख नहीं लगती, वे ही खाने में स्वाद डालने के सौ जतन करते हैं. जम कर भूख लगी हो तो हर खाना स्वादिष्ट लगता है .और तेज भूख तभी लगेगी जब कड़ी मेहनत की गयी हो .आज उसने भी मेहनत की है तो ये चटनी रोटी भी इतना सुस्वादु   लग रहा है.  उसे चटनी बहुत अच्छी लगी और सोचने लगा, ऐसी चटनी बनाने का जुगाड़ हो जाए तो फिर वो भी सिर्फ रोटी और प्याज से काम चला सकता है.

खाना खा कर किसान  फिर से खेतों की तरफ जाने लगा . अनिमेष से भी पूछा पर उसने मना कर दिया . वह अभी गाँव में थोड़ा घूमना चाहता था . जाते वक़्त दोनों लडकियां झोपडी के पास लगे छोटे से सब्जियों वाले खेत से उसके लिए एक खरबूजा तोड़ लाई. और शरमाती हुई उसे देने लगीं. अनिमेष ने बिना ना नुकुर के ले लिया. समझ नहीं पा रहा था 
, उनका कैसे शुक्रिया अदा करे .बस इतना ही कहा,"यहाँ आकर बहुत अच्छा लगा, फिर आऊंगा " .

थोडा आगे बढ़ा तो कुछ लड़के कंचे खेल रहे थे .उनके साथ थोड़ी देर कंचा खेला. सबके साथ मिलकर खरबूजा खाया .और फिर शाम को शहर लौट आया. ऐसे ही उसने दुनिया देखने का भी प्लान बना रखा था. खूब पैसे जमा करेगा और फिर पेरिस,स्विट्ज़रलैंड ,न्यूयार्क नहीं दुनिया के छोटे छोटे शहर देखेगा. कैसी है ज़िन्दगी उनकी...कैसे रहते हैं लोग वहां .

अब तक वह लड़कियों से दूर दूर रहता था. संयोग से कॉलेज में उसके बैच में ज्यादा लडकियां भी नहीं थीं. और उसकी किसी से दोस्ती भी नहीं हुई. पर ऑफिस में लडकियां ही लडकियां थीं . रंग बिरंगी चिड़ियों की तरह चहचहाती रहतीं. अपनी डेस्क पर टिक कर बैठती भी नहीं. उसे  बहुत जल्दी पता चल गया था, ऑफिस के सारे लड़के/लडकियां काम को लेकर बहुत  सिंसियर नहीं है. लडकियां किसी बहाने उससे बातचीत बढ़ातीं और फिर अपना काम उसके सर पर डाल चल देतीं. अनिमेष को गुस्सा नहीं आता क्यूंकि उसे बिजी रहना अच्छा लगता था और काम भी सीखने को मिलता.पर काम के बाद जो थैक्यू का सिलसिला शुरू होता, उस से उसे चिढ़ थी. 

अक्सर उसे लडकियाँ ओवर फ्रेंडली लगतीं. बात शुरू कर देतीं, किसी बहाने से फोन करतीं, अक्सर चाय-कॉफ़ी के लिए भी साथ जाना पड़ता. अनिमेष समझता था वह और लड़कों से थोडा अलग है, आगे बढ़कर उनसे दोस्ती का हाथ नहीं बढाता. उनसे हंसी मजाक नहीं करता , इसलिए वे उसपर भरोसा करती हैं. और करीब आना चाहती हैं ,पर वो भी क्या करे, उसकी रुचियाँ उनसे बिलकुल ही मेल नहीं खातीं. किसी भी विषय पर वो एक प्लेटफॉर्म पर होते ही नहीं. उसे एक्शन मूवीज, साइंस फिक्शन  पसंद आते तो लड़कियों को रोमांटिक फ़िल्में .उसे इंस्ट्रूमेंट बेस्ड म्युज़िक  पसंद था तो लडकियों को बॉलीवुड गाने . ज्यादातर बातचीत में वो हाँ हूँ ही करता रह जाता और उम्मीद करता कि उसकी हाँ हूँ से बोर होकर वे उस से दूर हो जायेंगी. पर लड़कियों को इतना अच्छा श्रोता कहाँ मिलता ? उसे ही उनसे दूर  रहने के सौ बहाने बनाने पड़ते, कभी मोबाइल स्विच ऑफ कर देता , कभी बीमारी का बहाना बनाता . तंग आ गया था पर निजात नहीं मिल रही थी . बस कंपनी चेंज करता, शहर बदलता तो थोड़े दिन की राहत मिलती पर फिर वही सारे वाकये सिरे से खुद को दुहराते .

और अब तो घर वाले किसी के पल्ले उसे बाँधने के लिए बेताब थे . बार बार दुहराते ,’उसे नौकरी करते हुए पांच साल हो गए हैं अब तो सेटल हो जाना चाहिए ‘. पर उसे सेटल होने वाली बात समझ में नहीं आती .वो सेटल ही तो था, अपनी मर्जी से अपनी ज़िन्दगी जी रहा था. उसे वो स्टीरियो टाइप ज़िन्दगी नहीं चाहिए थी. पढाई-नौकरी-शादी-बच्चे के चक्कर में नहीं फंसना था .उसे अपनी ज़िन्दगी अपनी तरह से जीनी थी. पर उसकी बात कोई नहीं समझता. माँ-पापा-रिश्तेदारों-पड़ोसियों की एक ही रट सुन उसने घर आना भी कम कर दिया था.

इस बार तो माँ से कह ही दिया, ‘अगर वो शादी की बात करेंगी,फोटो दिखाना शुरू करेंगीं तो फिर वह घर नहीं आएगा

माँ का ख्याल आते ही ध्यान आया कब से वो सड़कों पर ही भटक रहा है.अन्धेरा होने को आया ,माँ परेशान हो रही होंगीं कि कहाँ चला गया. जल्दी जल्दी घर की तरफ कदम बढ़ा दिए.

दूसरे दिन वह समय से अपने स्कूल पहुँच गया. गेट पर ही बैनर लगा हुआ था और सजे-धजे लोग भीतर जा रहे थे. लग रहा था जैसे कोई उत्सव हो. अखिल गेट पर ही मिल गया. गर्मजोशी से हाथ मिलाया और फिर गले ही लग गया .और भी दोस्त आस-पास सिमट आये .वो सबको पहचान भी नहीं पा रहा था . दस साल बाद मिल रहा था सबसे . बहुत बदल गए थे सब , चेहरा तो फिर भी गौर से देखने पर जाना-पहचाना लग रहा था पर सबका शरीर भर गया था .सबके नाम भी नहीं याद आ रहे थे. .अन्दर आकर उसने अखिल से कह भी दिया तो अखिल हो हो कर हंसने लगा,फिकर न कर ..तुझे सब पहचनाते हैं..तेरी सारी खबर है सबको.आखिर स्टार थे हमारे स्कूल के.अब भी नहीं बदले तुम तो. और कैसे बदलोगे अब तक छड़े घूम रहे हो..यार शादी क्यूँ नहीं की अबतक ?”

अब तू भी शुरू मत हो जा...कोई ये सवाल करे तो फिर मैं वहां जाना ही छोड़ देता हूँ..

अरे बाबा कोई नहीं...चिल्ल...नहीं करेंगे कोई सवाल


अखिल के कंधे पर किसी ने हाथ मारा और अखिल उस से मुड़ कर बातें करने लगा. अनिमेष हॉल में सबका जायजा लेने लगा ,लडकियां जो अब औरतें ज्यादा लग रही थीं एक घेरा बना कर बैठी थीं. कुछ के गोद में छोटे बच्चे थे तो कुछ की उंगलियाँ पकडे बच्चे हैरानी से सबको देख रहे थे . उनके पास में ही एक लड़की कुर्ता जींस में ,गले में बड़े बड़े मोतियों की माला डाले , कानों में लम्बे इयर रिंग्स पहने खड़ी थी. उसके काले बालों के बीच एक लट हाई लाईट किये हुए लाल रंग की थी. अनिमेष को यकीन हो गया कि ये लड़की उसके बैच की तो हो ही नहीं सकती .

उसने पास खड़े अमित से पूछ लिया, “जूनियर्स भी आये हैं क्या ??

 नहीं जुनियर्स तो नहीं पर जिनके भाई-बहन इसी स्कूल में पढ़े हैं और शहर में हैं वे साथ में आये हैं ."अमित ने बताया

अनिमेष ने सोचा,उसके स्कूल से निकल जाने के बाद इतनी फैशनेबल लडकियां पढने लगीं, बहुत तरक्की कर ली उसके स्कूल ने  उसके वक़्त में लड़के लड़कियों के अलग अलग ग्रुप में रहने का रिवाज आज भी कायम था .आज भी लड़के अलग गोल बना कर खड़े थे और लडकियां अलग घेरा बना कर बैठी थीं . 
वो लड़कों के साथ खड़ा था. करीब करीब सभी दोस्तों की शादी हो चुकी थी और वे बढ़ते खर्चों और इन्वेस्टमेंट की बातें ही ज्यादा कर रहे थे . अनिमेष सबकी बस सुन रहा था, उनकी बातों में शामिल नहीं हो पा रहा था .वह थोडा अलग हटकर खिड़की के पास खड़ा हो गया ,जहाँ से स्कूल का मैदान दिख रहा था . वही मैदान जहाँ हज़ारों रन बनाए थे ,सैकड़ों विकेट चटकाए थे और कैच पकडे थे . अब बरसों हो गए बैट थामे. उन दिनों एक अच्छे से बैट की कितनी हसरत थी उसे. दूकान में तीन सौ के बैट को उलट-पुलट कर देखता और फिर रख देता.जानता था उसके पिता की सीमित आय में ये शहंशाही खर्च संभव नहीं .आज चाहे तो रोज तीन सौ का एक बैट खरीद कर फेंक दे.पर वो दिन कहाँ से लौटा कर लाये?

इन्हीं सोचों में गुम था कि अपना नाम सुन कर पलटा. सामने वही जींस वाली लड़की खडी थी .कैसे हो..पहली बार आये हो रीयूनियन पर??...बिजी रहते होगे

अनिमेष की आँखों में आये अपरिचय के भाव को पढ़ कर हंस दी वह,नहीं पहचाना मुझे? अंकिता...तुम्हारी क्लास में थी

ओह ओके...पर उसके क्लास की कैसे हो सकती है ?उसकी क्लास में तो सारी लडकियां सलवार कुरता पहनतीं और कंधे पर चौड़ा सा तह किया हुआ दुपट्टा लेतीं थीं या फिर घुटनों तक ढीला ढाला स्कर्ट. और दो चोटियाँ तो सबकी होती थीं. कुछ उसे डबल कर कान के पास बाँध लेतीं उनके कान के पास दो बड़े बड़े लाल फीते के फूल देख उसे हमेशा ही हंसी आ जाती .अगर उसके क्लास की होगी भी तो इतना कैसे बदल सकती है. इसे कोई ग़लतफ़हमी तो नहीं हो गयी.

तभी उसने नाक फुला कर कहा ,“क्या इतनी मोटी हो गयी हूँ कि तुम पहचान ही नहीं रहे

इन लड़कियों को बस मोटे-पतले की ही चिंता रहती है,नहीं नहीं पहचान लिया ...वो सफ़ेद झूठ बोल गया.

तुम लास्ट टू रीयूनियन में क्यूँ नहीं आये ?...कितना अच्छा लगता है सबसे मिलकर ..कहाँ से चले थे हम और कहाँ पहुँच गए पर अपने बैच के साथ बड़ी अच्छी बात है , सबकी ज़िन्दगी में पौज़िटिव चेंज ही आये हैं.

अनिमेष को पक्का यकीन हो गया . इसकी शादी जरूर विदेश में हुई है तभी इसका रंग-ढंग इतना बदल गया है. पर ये है कौन ?

वो अपनी रौ में बोलती चली जा रही थी..क्या दिन थे वे न...कोई फिकर नहीं कोई चिंता नहीं...बस जिए जाओ..खाओ-पियो-पढो और मस्त रहो. मैं तो वैसे अब भी वैसी ही ज़िन्दगी जीती हूँ पर ये घर वाले और दुनिया वाले राम जाने इनके पेट में इतना दर्द क्यूँ होता है

क्यूँ क्या हुआ ..उसे सचमुच समझ नहीं आ रहा था .

अरे वही शादी की रटजैसे ज़िंदगी की सबसे जरूरी चीज़ है यह. रात-दिन मेहनत करके पढो-लिखो...पैसे कमाओ और फिर जब अपने ढंग से जीने का समय आये तो शादी करके बैठ जाओ .वही घर गृहस्थी -बच्चे .मुझे नहीं पड़ना इस जंजाल में

मुस्कुरा दिया अनिमेष,ये तो उसकी भाषा बोल रही है .

हाँ, हंसो हंसो....सबको ये बेवकूफी भरी बात ही लगती है. छोडो तुम नहीं समझोगे और सुनाओ....कहाँ हो आजकल...कैसी हैं तुम्हारी पत्नीश्री और बच्चे

हम्म... अब तक उनका पदार्पण तो हुआ नहीं ज़िन्दगी में

ओहो !!! शहर के मोस्ट एलिजिबल बैचलर हो तब तो तुम.....हाँ चाचा-चाची को कोई पसंद ही नहीं आ रही होगी ना ....अक्सर होता है ,पैरेंट्स को लगता है,उनके बेटे के लायक तो कोई लड़की पैदा  ही नहीं हुई...वे लडकियां छांटते चले जाते हैं और बेटे की उम्र बढती चली जाती है...मेरी पूरी हमदर्दी है,तुम्हारे साथ...करो अपनी ड्रीम गर्ल का इंतज़ार

ऐसा कुछ नहीं है, ओके ...वो मैंने ही मना कर रखा है...

ओह!! अच्छा ऑफिस में कोई पसंद होगी पर तुम्हारे कास्ट की नहीं होगी ..इसीलिए श्रवण कुमार डर रहें होंगे...माता-पिता को कैसे बताएं ..है न

अब अनिमेष को बहुत गुस्सा आ रहा था ,वो पहचान भी नहीं रहा है इसे और ये इलज़ाम लगाए जा रही है उस पर . उसने भी उसे झटका देने की सोची,तुम सचमुच हमारे बैच की हो...पर मैं पहचान नहीं पा रहा

बताया तो नाम अंकिता’ . अरे, अब तक थैंक्यू उधार है,तुम पर....तुम्हे हीरो बना दिया था पूरे स्कूल का .याद है? टेंथ में वो जो फाईट की थी तुमने दो लड़कों के साथ . मैंने ही तो तुम्हे बुलाया था .तुम तो अपने रास्ते जा रहे थे. नहीं बुलाती तो तुम कैसे फाईट करते और कैसे हीरो बनते  और सारे समय तुम्हारा बैग भी उठा कर रखा था

ओह्ह !! वो खुलकर मुस्करा दिया .उसे पुरानी अंकिता पूरी की पूरी याद हो आयी. वही कंधे तक लटकती दो चोटियाँ और लम्बी सी स्कर्ट. बिलकुल सींक सलाई सी थी. अब कोई मिलान ही नहीं था इस नयी और उस पुरानी अंकिता में ,

वो बैग उठाये रखने वाली बात अब तक कितनी बार दुहराई जा चुकी है हँसते हुए कहा,उसने

हाँ तो कोई झूठ तो नहीं बोला...

तभी विजय पास आ गया , “ ये बढ़िया मौक़ा है ,कल मेरे छोटे भाई की शादी है . इतना काम रहते हुए भी मैं सिर्फ सबको इनवाईट करने आया हूँ. सब एक ही जगह मिल गए. कितना अच्छा लग रहा है सबको साथ देख. अंकिता...अनिमेष..तुम दोनों को भी आना पड़ेगा.

मुझे तो तुम पहले ही बता चुके हो और मैं आ भी रही हूँ...इन छुपे रुस्तम से पूछ लो

पर मैं तो कल शाम जा रहा हूँ...मेरी छुट्टी ख़त्म हो गयी है..

अरे एक्सटेंड कर लो न..इतने सालों बाद मिले हो..अच्छा लगेगा...फिर अगले साल आ पाओ या नहीं...विजय ने बहुत जोर देकर कहा.

फिर सबको खाने-पीने के लिए बुलाया जाने लगा . सब छोटे छोटे ग्रुप में खाने की टेबल की तरफ बढ़ गए. जाने के समय अंकिता पास आयी और कहने लगी,आ रहे हो न कल..प्लीज़ ना मत कहना..तुम रहोगे तो मैं थोड़ी बची रहूंगी..वरना घर परिवार क्या ये सारे दोस्त भी पीछे पड़े रहते हैं. किसी को मैं अपनी पत्नी के भाई तो किसी को अपने पति के भाई के लिए सही मैच लगती हूँ. इनका वश चले तो उसी मंडप में मेरा भी फेरा करवा दें ..तुम कल आ रहे हो बस
उसने मुस्कुरा कर बस इतना कहा ,”देखता हूँ..

पर घर आया तो एक खुशनुमा अहसास उसे घेरे हुए था .पहली बार उसका भी मन हो रहा था किसी से फिर से मिले. उसकी बातें सुने ...उसे बस देखता रहे . उसे नहीं पता ,इस राह की कोई मंजिल है भी या नहीं...या है तो कितनी दूर पर सामने जो  राह नज़र आ रही थी उसपर कदम रखने को उसका दिल उस से मिन्नतें  कर रहा था और वह सोच रहा था ,पहली बार दिल ने कोई फरमाइश की है. एक बार उसकी भी सुन लेनी चाहिए.
.और वह अपनी लीव एक्सटेंड  करवाने के लिए अपने बॉस को फोन मिलाने लगा .


लाहुल स्पीती यात्रा -- 1 (चंडीगढ़, शिमला, नारकंडा )

काफी दिनों बाद कोई ब्लॉगपोस्ट लिख रही हूँ. शुरुआत करने से पहले एक बार फिर अपने ब्लॉग पाठकों का शुक्रिया अदा कर दूँ। लेखन की दूसरी पारी ,आप सब पाठकों के उत्सावर्द्धन से ही जारी रही...कहानियाँ लिखते,उपन्यास भी छप गया। कुछ यात्रा वृत्तांत काफी दिनों से लिखना चाह रही थी ,पर टलता जा रहा था। अब ब्लॉग वापसी हुई है तो सोचा, किस्तों में वही लिख डालूँ। पढ़ने वाले होते हैं तो लिखने का भी दिल करता है। तो भूमिका ज्यादा लंबा न खींचते हुए ,ले चलती हूँ आप  सबको 'लाहुल स्पीति'की सैर पर।

मुझे पहाड़ घूमने का मन था ,पर जानी सुनी , भीड़ भरी जगहों पर नहीं। मुझे एक मित्र ने 'लाहुल स्पीति ट्रिप'सुझाया। इसके पहले मैंने यहाँ का नाम भी नहीं सुना था। फिर तो इंटरनेट खंगाला गया ,काफी कुछ पढ़ा और ग्यारह दिनों की ट्रिप प्लान कर ली।  'लाहुल स्पीती'हिमाचल प्रदेश में स्थित दो जिलों का नाम है ,जिन्हें पहाड़ों का रेगिस्तान भी कहा जाता है..करीब  15000 फीट पर स्थित यह भारत की चौथी सबसे कम आबादी वाली जगह है. यहाँ सिर्फ ऊंचे पहाड़, नदियाँ, झरने मिलने वाले थे. हमारी यात्रा के पड़ाव थे ,चंडीगढ़- नारकंडा- सराहन- सांगला- चिट्कुल-काल्पा- टाबो- काज़ा - चंद्रताल - मनाली- चंडीगढ़। हमने सब जगह होटल की बुकिंग कर दी।

मुंबई से चंडीगढ़ की सुबह की फ्लाइट थी। मुंबई की ट्रैफिक से तो सभी वाकिफ हैं। सुबह ऑफिस जाने वालों का रश भी होता है. लिहाजा हम मार्जिन लेकर चले थे फिर भी हमारे 'ओला कैब'का ड्राइवर धीमा था या उस दिन ट्रैफिक ही ज्यादा थी पता नहीं. पर हम बहुत लेट हो गए. बोर्डिंग बंद हो चुकी थी। जेट एयरवेज के कर्मचारी किसी तरह भी नहीं मान रहे थे। जब हमने काफी रिक्वेस्ट की तो उस लड़की ने अपने किसी सीनियर से बात कर कहा कि 'आपलोग जा सकते हैं पर आपका सामान नहीं जा पायेगा।  कोई छोड़ने आया है तो उनके हाथ घर भिजवा दीजिये।'कितनी अजीब सी बात है, बिना सामान हम कैसे जाते। फिर थोड़ा मक्खन लगाया तो उसने कहा, 'अच्छा दोपहर की फ्लाइट से भेज देंगे।'किसी के कुछ कहने से पहले ही मैंने हामी भर दी। चंडीगढ़ से हमें तुरंत ही निकल जाना था और शिमला होते हुए 182  किलोमीटर की दूरी तय करते हुए 'नारकंडा'पहुंचना था। दोपहर को निकलते तो मुश्किल होती पर और कोई चारा ही  नहीं था। उस लड़की ने एक दूसरे कर्मचारी को बुलाया और हमें उसके सुपुर्द कर दिया। वो लड़का हमें दौड़ाते हुए बिना किसी क्यू में लगे,सिक्योरिटी चेक करवा बाहर तक ले गया। वहाँ उसने जेट एयरवेज़ के एक सूमो को इशारे से बुलाया और एयरक्राफ्ट तक ले जाने के लिए कहा. एक आदमी प्लेन के नीचे इंतज़ार में खड़ा था।  हमे देखते ही बोला ..."हरी अप ,वी वर वेटिंग फॉर यू " .एयरक्राफ्ट के अंदर गई तो पाया एयरहोस्टेस ,'सुरक्षा निर्देश 'देने की तैयारी कर रही थी और सबलोग हमें घूर रहे थे कि 'कौन हैं ये लेटलतीफ लोग ' . मन कृतञता  से भर गया था और मैंने सोचा था ,जेट एयरवेज़ के वेबसाइट पर जाकर एक धन्यवाद ज्ञापन लिखूंगी। पर लौटते वक्त उनके व्यवहार ने ऐसा मन खट्टा किया कि मैंने थैंक्यू नोट लिखना कैंसल कर दिया.
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शिमला 

चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर हम टकटकी लगाए देख रहे थे कि शायद हमारा सामान आ गया हो। और जब काफी देर बाद हमारा बड़ा सा बैग नज़रों की ज़द में आया तो सारी  मायूसी काफूर हो गई.  हमने एक इनोवा बुक की थी , जो हमें चंडीगढ़ एयरपोर्ट से रिसीव कर सारी जगहें घुमा फिर चंडीगढ़ छोड़ जाने वाली थी । बाहर ड्राइवर इंतज़ार में ही था। एक मेजदार बात हुई. मेरे साथ ही एक महिला अपनी ट्रॉली धकेलते हुए जा रही थी...जब हमारी नज़रें मिलीं तो अनजान होते हुए भी हम दोनों एक दूसरे को देख खुल कर मुस्करा दिए, 'हम दोनों ने बिलकुल एक जैसा टॉप पहना हुआ था :) .मुंबई के एक ही स्टोर से खरीदा होगा. 

पर हमारी परेशानी खत्म नहीं हुई थी। अभी हम थोड़ी ही दूर गए थे कि पुलिसवालों ने गाड़ी रोक पेपर दिखाने को कहा. शायद टैक्स नहीं भरा था और उन्होंने गाडी रोक दी। ड्राइवर ने ट्रैवल एजेंसी के मालिक को फोन किया।  अब जब तक वे आते हम सड़क के किनारे चहलकदमी कर तस्वीरें और सेल्फी खींचते रहे। पर भूखे प्यासों की तस्वीर इतनी बुरी आई कि सब डीलीट कर दिए. कार के मालिक के आने और पुलिस वालों से रिश्वत की हील हुज्जत में पूरे दो घंटे बर्बाद हो गए। हमारे शिकायत करने पर उनका कहना था ,'सिर्फ एक दिन लेट हुआ और बैडलक है कि पुलिसवालों ने पकड़ लिया ' (गोया ये उनका नहीं हमारे खराब ग्रह का दोष था ) आगे जाकर एक छोटे से रेस्त्रां में भरपेट तंदूरी रोटी और पनीर टिक्का मसाला खाय तो जान में जान आई.


शिमला में एंटर करते ही घुमावदार सड़कें, लाल, हरे  रंग  वाली टीन की छतें, ऊँचे चीड़ के वृक्ष और उनके पार पर्वतों की चोटियां मन मोह ले रही थीं।  शिमला पहुँचते अँधेरा घिर  आया. शिमला से हमें गर्म कपड़े खरीदने थे।  आगे 'रोहतांग पास'वगैरह में मौसम ठंढा होने वाला था और हम मुम्बईकर के पास गरम कपडे होते  नहीं. मेरा हॉलिडे का मूड, ठंढी हवा,  शिमला की पतली गालियां, छोटी दुकानें, लाल लाल गाल वाले प्यारे से बच्चे। सब कुछ इतना  खुशनुमा लग रहा था कि मन हो रहा था, खरामा खरामा चलती रहूं पर ड्राइवर बार बार फोन कर रहा था कि हमें नारकंडा पहुंचते बहुत रात हो जायेगी, पहाड़ी रास्ता है...और रास्ता भी खराब है. बिना ज्यादा घूमे, मोलभाव किये पहली  दूकान में जो मिला...हमने स्वेटर,जैकेट,मफलर सब खरीद लिया . ( सिर्फ चंद्रताल में जैकेट काम आये ,बाकी स्वेटर वगैरह अब तक वैसे ही नए पड़े हैं. जुलाई के महीने में बाकी सारी जगहों पर जरा भी ठंढ नहीं थी और मौसम बहुत खुशनुमा था। )
नारकंडा का रास्ता सचमुच बहुत ही भयावह था। पतली सी सड़क. कहीं,कहीं कच्ची भी, दोनों तरफ झाड़ियाँ और अँधेरे में सिर्फ हेडलाइट के सहारे बढ़ती हमारी गाड़ी।  बरसों से इतना अँधेरा रास्ता मैंने देखा ही नहीं था. मुंबई में तो सड़कों पर इतनी गाड़ियां और उनके हेडलाइट से इतना उजाला होता है कि दो बार ऐसा हुआ है, मैं तीन घंटे का सफर करके आ गई हूँ और हेडलाइट ऑन ही नहीं की। दोनों बार शाम  को चली थी, रास्ते में अन्धेरा तो हो गया था पर अहसास ही नहीं हुआ. एक बार तो बिल्डिंग के नीचे गाडी पार्क करने के बाद मैंने हेडलाइट ऑफ करने की सोची तो पाया ऑन ही नहीं किया था। दूसरी बार, घर के पास का एक स्ट्रीट लाइट खराब था ,मैंने सोचा इतना अँधेरा क्यों लग रहा तब ध्यान गया कि हेडलाइट ऑन ही नहीं है. ट्रैफिक पुलिस पकड़ लेती तो हेवी फाईन लगता पर उन्हें भी इतनी बत्तियों की चकाचौंध में पता ही नहीं चला होगा. 

अब तक हम थक कर चूर हो चुके थे ,निढाल से पड़े थे। जंगलों के बीच एक ढाबा नज़र आया, ड्राइवर से आग्रह किया गया, 'कुछ खाकर चाय पी जाए।'आँखों के सामने गर्मागर्म समोसे और पकौड़े की प्लेट नाच रही थी। पर ढाबा बिलकुल खाली था ,एक औरत कुछ रख,उठा रही थी. दो लडकियां टी वी देख रही थीं. पता चला, बिस्किट और चाय के सिवा कुछ नहीं मिलेगा. माँ आवाज़ लगाती रह गई, पर देश-विदेश, मैदान- पहाड़ कोई भी जगह हो, किशोरावस्था एक सी होती है. लडकियां टी वी के सामने से नहीं उठीं. माँ ने ही हाथ का काम छोड़ स्टोव जला, चाय बनाई ।  वे लोग जितना हो सके स्टोव या लकड़ियों पर खाना बनाती थीं. गैस बचा बचा कर खर्च करती थीं.

नारकंडा में हमारा होटल एक छोटी सी पहाड़ी पर था. दोनों तरफ ढलान और ढलान पर हल्की रौशनी में नहाते चीड़ के पेड़ एक तिलस्म सा रच रहे थे।  होटल की बगल में कुछ लोहे की कुर्सियां और गोल टेबल रखे थे। किनारे रेलिंग थी और रेलिंग के पार गहरी घाटी।  तभी हल्की सी बारिश शुरू हो गई. होटल के शेड में लगे बल्ब से छन कर आती रौशनी में नाचती बारिश की बूंदें कुछ इतनी भली लग रही थीं कि मन हुआ उस  फुहार में कुर्सी पर देर तक बैठी रह जाऊँ ,पर थके शरीर ने इज़ाज़त नहीं दी। कुछ देर बाद संगीत और शोर शराबे की आवाज़ आने लगी । खिड़की से देखा, कुछ युवा उसी फुहार में गाना लगा, पार्टी कर रहे थे। हमने सोचा ये तो शिमला से आये होंगे ,हम तो मुम्बई से करीब २००० किलोमीटर का सफर करके आये हैं। खाना भी हमने रूम में ही मंगवाया और उन सबकी एन्जॉयमेंट पर रश्क करते सो गए.
सुबह मैं सबसे पहले उठ कर बाहर को चल दी। नीचे से होटल तक आती लाल घुमावदार पतली सी सड़क के  दोनों तरफ जहां तक नज़र जाती ,कुहासे में लिपटे लम्बे लम्बे चीड़ के पेड़ नज़र आ रहे थे. . ऐसा दृश्य बस फिल्मों में ही देखा था। शायद किसी ब्लैक एन्ड व्हाईट फिल्म में नायिका जोर जोर से विरह के गीत गाती ,ऐसे ही पेड़ों के बीच भटकती रहती थी . पेड़ पर कुछ बंदर उछलकूद मचाते ,पकडापकड़ी खेल रहे थे। सोचा, मजे है इनके तो आँखें खुली और खेल शुरू , नहाने धोने, खाने-पीने की चिंता ही नहीं...:)

 बहुत शौक था की किसी अनजान शहर में सुबह सुबह मैं अकेली निरुद्देश्य  घुमा करूं. लिहाजा चलती चली गई. शहर बस अलसाया सा अधमुंदी आँखों से माहौल का जायजा ले रहा था. इक्का दुक्का लोग सड़कों पर थे. पर सड़क मरम्मत करने वाले इतनी सुबह से काम पर लगे थे।  सब अठारह-बीस वर्ष के लड़के लग रहे थे। पता नहीं वहीँ के थे या फिर दूसरे शहरों से मजदूरी करने आये थे। इतनी सुबह उन्हें फावड़ा चलाते देख,अपने इस तरह निफिक्र  घूमने पर कुछ गिल्ट भी हुआ.

चौराहे पर एक मंदिर था। लोहे का जालीदार दरवाजा बंद था।  भगवान जाग भी गए होंगे पर पुजारी पर निर्भर थे। वो जब उन्हें नहलाये-धुलाये, भोग लगाए। थोड़ी देर सड़कों पर भटकती रही, पीछे से बेटा भी आ गया। एक छोटी सी चाय की दूकान थी. हमने चाय की फरमाइश की तो दुकानवाले ने कहा, 'अभी बना देता हूँ  '. पूरे हिमाचल ट्रिप पर मैंने पाया ,वे लोग चाय ऑर्डर करने पर बनाते थे. बनी बनाई चाय नहीं होती थी. इस से हमारा फायदा ये  हो जाता कि हम फरमाईशी चाय बनवाते, 'चीनी जरा काम डालना, थोड़ी अदरक इलायची डाल  देना।' 
चाय पीकर हम होटल वापस आ गए।  अब तैयार हो, थोड़ा 'नारकंडा' घूमते हुए 'सराहन'के लिए निकलना था। सामान पैक करते खिड़की के पार जो नज़र गई तो टूर ऑपरेटर की बात सही साबित होती लगी.उसने कहा  था ,"यहाँ  हर दो मिनट  पर दृश्य बदल जाते हैं "अब तक सामने दिखती पहाड़ी बादलों में लिपटी पड़ी थी. अब मानो पहाड़ी ने बादलों की चादर परे  फेंक दी थी . सूरज की नरम रौशनी  में नहाये छोटे छोटे लाल हरे खिलौने से घर खूबसूरत लग रहे थे। मैंने तस्वीरें लेने की सोची पर फिर लगा, हाथ का काम पूरा कर लिया जाये. बैग की ज़िप बंद कर जैसे ही कैमरा ले खिड़की के पास गई....आलसन पहाड़ी ने फिर बादलों की चादर अपने ऊपर खींच ली थी.  कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था.
 एक सीख भी मिली,.... जो दृश्य अच्छा लगे, झट कैमरे में कैद करो, वरना बदल जाएगा. 

 (क्रमशः )



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इतनी सुबह सडक मरम्मत करते मजदूर 








लाहुल स्पीती यात्रा वृत्तांत -- 2 (सराहन, सांगला, चितकुल )

नारकंडा से हम सुबह दस के करीब ,सराहन  की तरफ चले .रास्ता बहुत ही खूबसूरत  था ,पतली घुमावदार सडकें, ढेर सारी हरियाली के बीच सेब के बाग़ . मैंने पहली बार पेड़ों पर लगे सेब को देखा . सेब के पेड़ तो देखे थे पर सेबों के मौसम में कभी हिमाचल आना नहीं हुआ था . गुच्छे में लटके लाल लाल सेबों को देखकर  मैं तो जैसे पागल हुई जा रही थी. एक जगह मैंने गाड़ी रुकवाई और फोटो खींचने के लिए उतर पड़ी. मेरा उत्साह देख सब डर गए कि मैं कोई सेब तोड़ ना लूँ, पर बिना पूछे कैसे हाथ लगा सकती थी .अक्ल घर थोड़े ही भूल आई थी, साथ लेकर चल रही थी :)  .लिहाजा पेड़ों के सामने ढेर सारे फोटो खिंचवाए .कई जगह  सतलज नदी भी संग संग चली और उसका कल कल करता  मधुर स्वर...सफर को संगीतमय बना रहा था . तीन बजे के करीब हमलोग सराहन पहुँच गए .
सराहन हिमाचल का एक छोटा सा गाँव है .इसे किन्नौर का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है. यह शिमला से १६५ और नारकंडा से  100 किलोमीटर की दूरी पर   समुद्र तल से लगभग 7100 फुट की उंचाई पर स्थित है. पहले यह 'बुशहर रियासत 'की  राजधानी था .शायद कठिन भोगोलिक परिस्थितिओं को देखते हुए बाद में राजा राम सिंह ने रामपुर को बुशहर की राजधानी के रूप में विकसित किया और अंतिम राजा के रूप में श्री वीरभद्र सिंह जी ने इसका प्रतिनिधित्व किया.  हिमाचल के लोग उन्हें आज भी राजा साहब कह कर बुलाना पसंद करते हैं.
सराहन के बारे में एक पौराणिक कथा के अनुसार यह स्थान कभी शोणितपुर कहलाता था. और यहाँ का सम्राट बाणासुर था, जो राजा बलि का पुत्र था. वह भगवान् भोले शंकर का परम भक्त था. “ त्रेता युग में रावण और बाणासुर के बीच में काफी संघर्ष होता रहा है, उस वक़्त बाणासुर ही एक अकेला ऐसा योधा था, जिससे रावण कभी जीत नहीं सका”. 


होटल में सामान रख कर खाना खाया और यूँ ही भटकने निकल गए . एक छोटे कस्बे के बाज़ार सा था जहां जरूरत की सारी चीज़ें मिल रही थीं .स्कूल  यूनिफ़ॉर्म में बच्चे स्कूल से लौट रहे थे . स्कोल कि इमारत भी बड़ी सी थी. कुछ बच्चों से रोक कर स्कूल के विषय में बात की तो पता चला, अच्छी पढ़ाई होती है और  सारे विषयों के शिक्षक भी हैं . छोटे से कस्बे के हिसाब से अच्छी खबर थी. हिमाचल में शिक्षा  का स्तर अच्छा दिखा और जितने भी लोगों से मिली , स्त्री-पुरुष, सभी बारहवीं  पास जरूर थे .
दूसरे दिन सुबह तैयार हो हम भीमकाली मंदिर देखने निकल पड़े.
सराहन का भीमाकाली मंदिर बहुत प्रसिद्ध है. दूर दूर से लोग भीमा देवी के दर्शन करने आते हैं और मन्नतें माँगते हैं . 'बुशहर राजवंश'की ये कुलदेवी हैं .आज भी विजयादशमी के समय वीरभद्र सिंह यहाँ पूजा करने आते हैं. यह मंदिर राजाओं के महल के अंदर स्थापित था और उनका निजी मंदिर था पर अब यहाँ सार्वजनिक स्थान है. यह मंदिर सब तरफ से सेबों के बाग़ से घिरा हुआ  है.पर्वत शिखर श्रीखंड की  पृष्ठभूमि में यह बहुत ही मनमोहक लगता है. 
यह ५१ शक्तिपीठों में से एक है .कहते हैं शिव जी जब सती का शव कंधे पर लेकर तांडव नृत्य कर रहे थे तो सती का कान यहाँ गिरा था और भीमाकाली देवी प्रगट हुई थीं. मन्दिर के  दो भव्य भवन है . एक का जीर्णोद्धार  किया गया है और एक अपेक्षाकृत नया है. 
 हिंदू और बौद्ध वास्तुशिल्प से निर्मित यह मंदिर लगभग 2,000 वर्ष पुराना है, मगर इसका जीर्णोद्धार कर इसको पुनः वही आकार दिया गया है। पत्थरों और लकड़ी के इस्तेमाल से बना यह मंदिर शत-प्रतिशत भूकंपरोधी है। मंदिर के प्रांगण में खड़े होकर आप हिमालय को साक्षात निहार सकते हैं।  यह मंदिर अपनी विशिष्ट निर्माण शैली, लकड़ी की कलात्मक नक्काशी, और चांदी  चढ़े दरवाजों के लिए विख्यात है. उलटे पिरामिड की शक्ल में बने इस मन्दिर का नीचे बना आधार छोटा है, पहली मंजिल बड़ी और दूसरी मंजिल पहले से भी बड़ी है.,जिसके ऊपर छत्र है . मुख्य मन्दिर भी दुरी मंजिल पर ही है. मन्दिर निर्माण की एक और विशिष्टता यह है कि यहाँ लकड़ी के स्लीपर तथा पत्त्थर की  सिलें एक एक ऊपर एक रखकर मुख्य दीवारें  बनाई गई है. ये दीवारें और ढलवां छत बौद्ध प्रभाव को दर्शाती हैं. निर्माण की इस विशिष्टता के कारण यह गर्मी सर्दी आसानी से शसन कर लेती हैं. अनुमानतः यह सातवीं, आठवीं, शताब्दी में बना था .. इस से पता चलता है कि उस समय तिब्बत के साथ भारत का व्यापार शुरू हो चुका था . लकड़ी और पत्थर से बनी दीवारें हैं और छत काफी नीची है. 
  

मन्दिर का बाहरी दृश्य भी  मंत्रमुग्ध कर देने वाला है. यह मन्दिर बहुत बड़े भाग में फैला हुआ है. मुख्य मन्दिर तक जाने में बड़े बड़े तीन आंगन पार करने पड़ते हैं .जहां देवी शक्ति के तीन अलग अलग रूपों की मूर्ति मन्दिर में स्थापित है. देवी भीमा की अष्टधातु से बनी अष्टभुजा वाली मूर्ति सबसे ऊपर वाले प्रांगण में है. पैगोडा आकार के छत वाली इस मंदिर में पहाड़ी शिल्पकारी के बहुत सुंदर नमूने देखने को मिलते हैं.दीवारों पर लकड़ी के ऊपर देवी देवताओं, फूल पत्तीकी सुंदर नक्काशी है. मंदिर के प्रांगण में जाने वाले बड़े बड़े दरवाजों से गुजरना होता है उनपर चांदी मढ़ी हुई थी . 
मंदिर के अंदर स्त्री या पुरुष बिना सर ढके नहीं जा सकते .गार्ड उन्हें एक हिमाचली टोपी पहनने के लिए देता है. चमड़े की  बनी कोई वस्तु बेल्ट या पर्स भी लेकर नहीं जा सकते . इन्हें रखने के लिए बाहर लॉकर बने हुए हैं. हैरानी की बात ये लगी कि लॉकर के पास ही ,ताले चाबी भी रखे थे . लॉकर में अपना समान रखो और ताला लगाकर चाबी जेब में डाल कर ले जाओ. कहने में शर्म आ रही है पर अपना उत्तर भारत होता तो ताले-चाबी कब के चोरी हो गए होते . यहाँ ट्रेन के टॉयलेट में मग और बैंक,ऑफिस  वगैरह में पेन भी जंजीर में बंधी होती है :( 
पुरानी मन्दिर वाले प्रांगण में बहुत बड़े घड़े और कडाही पर्यटकों के दर्शनार्थ रखे गए हैं. हमने भी उनके संग कुछ  फोटो खिंचवाए .
सराहन का पक्षी विहार भी मशहूर है.हम वहाँ गए भी पर पता चला आजकल बंद है वह पक्षियों का प्रजनन काल है, उस वक्त पर्यटकों की आवाजाही से वे डिस्टर्ब  हो सकते हैं.. सही है,पक्षी हैं तो क्या,उन्हें भी आराम और  प्राइवेसी चाहिए ही. . वहीँ पर कुछ खूबसूरत मजदूर औरतें किसी भवन निर्माण में काम कर रही थीं और सुस्ताने के लिए रेत पर बैठी थीं. मुझे इतनी प्यारी लगीं कि मैंने उनकी तस्वीर ले ली .
सराहन में कई बौद्ध मठ भी हैं . एक मठ के प्रांगण में गए तो पाया, मठ बंद था .पर वहां मेरे मन  की मुराद पूरी हो गई. मठ कुछ उंचाई पर था उस से लगा हुआ कुछ नीचे एक सेब का बाग़ था .सेब से लदे डाल,मठ के प्रांगण में झूल रहे थे .पहले तो मैंने उन्हें तोड़ने की एक्टिंग करती  हुई तस्वीरें खिंचवाई. वहीँ दो तीन औरतें बैठी हुई थीं .वे मेरा कौतूहल  देख ,मुस्करा रही थीं.पता चला उनका ही बाग़ है और मैंने उनसे आग्रह किया, 'एक सेब तोड़ लूँ '.उन्होंने हंसते हुए इजाज़त दे दी...'एक क्या दो चार तोड़ लो'.पर मैंने दो ही तोड़े  .सेब अभी खट्टे ही थे पर इतने रसभरे और क्रंची कि मजा आ गया.

एक बहुत ही भव्य मठ एक पहाड़ी  के ऊपर बना हुआ था .वहाँ बुद्ध की विशालकाय मूर्ति थी .ऊपर से देखने से धुंध में लिपटा पूरा सराहन दिख रहा था . एक बौद्ध भिक्षु ने कतार से चमचमाते दीयों में दिया और बत्ती सजा रखी थी. पीतल के कई दीप स्तम्भ भी थे, जो सब चमचमा रहे थे . निश्चय ही वो बौद्ध  भिक्षु बहुत ही श्रद्धा लगन से अपना काम करता था . मठ के नीचे एक सेब का पेड़ दिख रहा था , जो फलों से इतना ज्यादा लदा हुआ   था कि उसकी पत्तियाँ भी नजर नहीं आ रही थीं. लौटते हुए हमें पानी बहने का स्वर तो सुनाई दे रहा था पर कहीं कोई धारा दिखाई नहीं दे रही थी....आवाज़ का पीछा करते रहे तो पाया...पत्थरों के नीचे से एक पतला सा झरना बह रहा था .इतनी बड़ी बड़ी शिलाएं भी उसकी आवाज़ नहीं दबा पा रही थीं ( हम स्त्रियों की आवाज़ सी :) ) 


अब शाम होने को आई थी...हम होटल लौट आये .दुसरे दिन सांगला के लिए प्रस्थान करना था .
'सांगला'हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में स्थित एक सुरम्य पहाड़ी शहर है। भारत-चीन सीमा पर अपनी स्थिति की वजह से 1989 तक इस स्थान के दौरे के लिये, यात्रियों को भारत सरकार से एक विशेष अनुमति लेनी पड़ती थी। हालांकि, बाद में इस क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये इस नियम को समाप्त कर दिया गया। बस्पा नदी की घाटी में स्थित यह जगह तिब्बती सीमा से काफी निकट है।तिब्बती भाषा में 'सांगला काअर्थ है 'प्रकाश का रास्ता'। इसकी  की प्राकृतिक सुंदरता अद्भुत  है चारों तरफ हिमालय की उंची पहाड़ियों से घिरा और वन, ढलानों और पहाड़ों से छाया हुआ है।यहाँ सेब, खुबानी, अखरोट, देवदार के वृक्ष बहुतायत में हैं. बताया जाता है कि प्राचीन समय में यह घाटी वनों और प्राकृतिक सम्पदा से इतनी ज्यदा घनी थी कि अग्यात्वास के दौरान ,पांडव यहीं छुपे  थे .  
इन पहाड़ी रास्तों पर कहीं कोई होटल या ढाबा नहीं मिलता कि रुक कर कुछ खाया पिया जाए. हमें बेतहाशा भूख लग गई थी. जब होटल पहुंच कर खाना ऑर्डर करने के लिए बुलाया तो उसने पूछा, 'आप जो कहें वही बना देंगे , हमें सामान लाने बाज़ार  जाना होगा.' .अगस्त का महीना वहाँ घुमने के लिए बहुत मुफीद मौसम है पर पर्यटकों के लिए ऑफ सीजन है. पर्यटक, गर्मी या दशहरे की छुट्टियों में ही ज्यादातर आते हैं. 
 खाना तैयार होने में वक्त लगने वाला था . हमने कहा, 'हम बाज़ार में जाकर ही कुछ खा लेते हैं, अब आप शाम  को खाना बनाना' . होटल का कुक भी हमारे साथ ही बाज़ार आया .वहाँ एक रस्टोरेंट में दाल रोटी और सब्जी आर्डर की  सब्जी का स्वाद कुछ अजीब सा था , चाइनीज़ जैसा पर पूरी तरह वैसा भी नहीं .लेकिन हमें इतनी भूख लगी थी कि गर्म गर्म फुलके के साथ वो सब्जी भी स्वादिष्ट लगी . पास की टेबल पर एक कपल बैठा था . वो हमारे होटल में नहीं ठहरा  पर शायद  उनके होटल में भी खाना नहीं बना था. वे लोग भी दाल रोटी सब्जी खा रहे थे .वहाँ वाशबेसिन पर गजब जुगाड़ दिखा. एक बड़े से प्लास्टिक डब्बे में नल लगा हुआ  था और वही डब्बा वाश बेसिन के ऊपर टंगा था . 
होटल में पहुंचे तो पीछे की तरफ एक अद्भुत दृश्य दिखा . हमारे होटल और पहाड़ियों के बीच एक इन्द्र्धनुष तना हुआ था . इतने करीब से इन्द्रधनुष पहली बार देख रही थी, हमने इन्द्रधनुष के साथ एक सेल्फी  ले ली :) खिड़की से दिखता दृश्य बचपन में बनाई पेंटिंग सरीखा लग रहा था .बर्फ से लदी चोटिया ,पहाड़ों के ढलान पर देवदार के वृक्ष ,उसके ऊपर मखमल सा बिछा हरा चारागाह और नीचे बहती बलखाती चंचल  नदी ...नदी के किनारे फलों से लदे सेब के बाग़ .नदी की कलकल धरा का मधुर संगीत हमें यहान तक सुनाई दे रहा था .बहुत देर तक  हम उन दृश्यों में खोये रहे . फिर ख्याल आया नदी तक घूम आया जाए .   नदी के किनारे ढलान पर एक गाँव बसा हुआ था . हम पूछते पाछते चल दिए ,.रास्ते में कई महिलायें पत्तों का बड़ा सा बोझा लादे ,घर की तरफ लौट रही थीं. . वे सर्दी के मौसम के लिए पशुओं का चारा इकठा करके रख  रही थीं.लाल लाल गालों वाली सुंदर पतली छरहरी महिलायें ,तेजी से इधर उधर काम से आ जा रही थीं. एक से रुक  र्मैने कुछ बात की तो वो पूछने लगी, कहाँ से आई हैं? और बम्बई कहने पर उसकी आँखें चमक उठीं, फिर उसने पूछा, '...कैसा लगा हमारा देस?"मेरे  'बहुत अच्छा ' कहने पर मुस्करा कर बड़ी मीठी आवाज़ में बोली, ;"फिर आना' . अनजान लोगों को भी अपने देस फिर फिर आने का न्योता, ये पहाड़ों के निश्छल लोग ही दे सकते हैं. 
थोडा नीचे जाने पर ,नाग देवता का बहुत सुंदर मन्दिर मिला . उसके द्वार पर बड़े बड़े नागों की आकृति बनी हुई थी. वहाँ लिखा था ,'पारम्परिक वेशभूष में ही मंदिर के अंदर प्रवेश करें' .वैसे भी मंदिर बंद था . उस प्रांगण में ऐसे चार मंदिर थे ....कुछ लड़के लडकियाँ ,मन्दिर के प्रांगण में इक्खट दुक्खट खेल रहे थे . पूरे देश में ही लडकियां इसे खेलती हैं . खेलने के लिए बस थोड़ी सी जगह और एक पत्थर का टुकड़ा ही  तो चाहिए . शाम गहराने लगी थी , होटल से इतनी पास  दिखती नदी अब भी दूर नजर आ रही थी. और हम सोच रहे थे, जितना नीचे उतरते जायेंगे, वापस चढना भी पड़ेगा.सो लौट पड़े. एक छोटी सी दूकान में चाय पी और समोसे को याद करते  हुए मोमोज खाए .यहाँ समोसे चाट पकौड़ी की जगह बस मोमोज ही मिलते थे, जो मुझे नहीं पसंद :( (नॉनवेज खाने  वाले कहते हैं , वेज मोमोज अच्छेनहीं होते, नौन्वेज ज्यादा स्वादिष्ट होते हैं , अब  अहम शाकाहारियों को ये कैसे पता चलेगा )
दूसरे दिन हमें भारत-तिब्बत  की सीमा पर बसे अंतिम गाँव 'चिट्कुल'के लिए निकलना था. चितकुल बस्पा नदी के किनारे बसा बहुत ही खूबसूरत छोटा सा गाँव है. सांगला से २८ किलोमीटर की दूरी पर है. सांगला से चितकुल का रास्ता इतना खूबसूरत है कि आज भी आँखें बंद करती हूँ तो सारे दृश्य साकार हो उठते हैं. यह पूरा रास्ता फैले हुए जंगल के बीच से होकर गुजरता है.रास्ते के ,पार्श्व में बहती बसपा नदी...पिघलते ग्लेशियर की छोटी छोटी धाराएं, आस-पास पड़े बड़े बड़े सफेद गोल पत्थर, तरह तरह के घने हरे पेड़, दूर चमकती बर्फीली चोटियाँ रास्ते को नयनाभिराम बना देती हैं.  महसूस होता है , स्वर्ग अगर कहीं है तो ऐसा ही होगा..हर तरफ हरियाली से भरा यह क्षेत्र ,भोजपत्र के घने जंगलों के लिए विख्यात है. कभी भोजपत्र का उपयोग कागज़ की तरह किया जाता था ,हमारे ऋषि मुनियों ने भोजपत्र पर ही कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है. भोजपत्र, टिम्बरलाइन (समुद्रतल से ३३०० मीटर की ऊँचाई ) से ऊपर उगने वाल दुर्लभ वृक्षों में से एक है. इसका जंगल हज़ारों वर्षों में पनपता है. 
बीच में एक पुल पार करना पड़ा और हम पुल से उतरकर नदी तक जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाए . दूर से बहती हुई, पत्थरों से टकराती नदी की धारा बहुत तेज थी .एक पत्थर पर बैठ जैसे ही धारा में पैर डाला तो अगले ही पल निकाल लेना पड़ा...लगा पैर सुन्न हो जायेंगे...इतना बर्फीला,ठंढा पानी था .
 में लकड़ियों से बने हुए बहुत छोटे छोटे एक दुसरे से लगे हुए घर थे .बीच में एक बड़ा सा नाला बह रहा था .उस नाले का पानी इतना साफ़ था कि मैंने उसकी भी एक तस्वीर ले ली .गाँव  के किनारे खेतों में सरसों भी फूली हुई थी और एक पति पत्नी मिलकर खेत में कम कर रहे थे . एक घर के बाहर चटाइयों पर शलजम, गोभी सूख रहे थे .वहीँ एक बूढ़े सज्जन बैठे थे .पूछने पर बताया कि ये इंतजाम सर्दियों के लिए है. सर्दियों में इनका ही सूप बनाकर पीते हैं. गाँव के बीच में थोड़ी सी खाली जगह पर पड़ी एक लाल बेंच बहुत खूबसूरत लग रही थी . मन हुआ देर तक वहाँ बैठी रह जाऊं. चितकुल में आलू के बहुत उत्कृष्ट किस्म की अच्छी खेती होती है . दुनिया भर में यहाँ के आलू मशहूर हैं,क्योंकि यहां उगाये आलू को दुनिया में सबसे अच्छा माना जाता है और यह काफी महंगा भी है।

यहाँ एक स्थानीय देवी चिटकुल माथी का सुंदर मंदिर है, जो गांव के मूल निवासियों द्वारा माता देवी के रूप में भी जाना जाता है। हिंदू देवी गंगोत्री को समर्पित है,  .पर दोपहर के वक्त मंदिर बंद था ,हमने बाहर से ही दर्शन कर लिए. यहाँ बौद्ध मठ भी हैं .
वहाँ एक वॉलीबॉल कोर्ट भी था , जहां कुछ युवा  वॉलीबॉल खेल रहे थे .पास ही बहुत सारे बुजुर्ग, बैठे कोई मीटिंग कर रहे थे . चिट्कुल में दसवीं तक का एक स्कूल भी है और गाँव का हर कोई साक्षर है. सुदूर सीमा का अंतिम गाँव  जरूर है पर सारी आधुनिक सुविधाएं वहाँ पहुँच चुकी थी .घरों के ऊपर डिश एंटेना लगे हुए थे .पास की दूकान में पेप्सी, बिस्किट, चिप्स सब कुछ मिल रहा था .हमने भी वहाँ बैठ चिप्स के साथ अदरक इलायची वाली स्वादिष्ट चाय पी. 
उन्हीं खूबसूरत रास्तों को आँखों में भरते हम वापस हो लिए . होटल में खाना खा कर ,'कामरू किला'देखने चल पड़े.कामरू किला अब एक हिंदू देवी कामाक्षी को समर्पित मंदिर में बदल गया है. पहले यहाँ  राजा रहते थे . यह काफी ऊँची एक पहाड़ी पर स्थित है. पर सीढियां बनी हुई हैं क्यूंकि पूरे पहाड़ पर घर बने हुए हैं और लोग बसे हुए हैं . रस्ते में सेब के पेड़ भी हैं और कई जगह सीढियों पर पेड़ की डाल से मेहराब सा बना हुआ है ,जिसपर हरे-लाल सेब बन्दनवार से सजे थे . सेबों की दीवानी मैंने उनके नीचे खड़े होकर भी एक तस्वीर खिंचवा ली :) 
हम चढ़ते जा रहे थे ,पर सीढियां खत्म होने का  नाम  ही नहीं ले रही थीं. पर शिकायत करते शर्म आ रही थी क्यूंकि लगातार लोग सीढियों से ऊपर जा रहे थे . एक बहुत बूढी महिला भी सीढ़ी चढ़ रही थीं. कुछ मजदूर पीठ पर दस -पन्द्रह ईंट एक थैले में बांधकर ऊपर चढ़  रहे थे और जाने कितने फेरे लगाते होंगे वे. 
पूरी हिमाचल यात्रा के दौरान मैंने एक भी किसी स्थानीय मोटे स्त्री-पुरुष को नहीं देखा . पहाड़ों के ऊपर चढने का अभ्यास अतिरिक्त चर्बी कहाँ जमने देगा . ऊपर चढने के बाद पाया किले का विशालकाय दरवाजा बंद था और उसपर मोटा ताला जड़ा हुआ था .पर निराशा में डूबनेसे बेहतर  हमने सोचा किले के पीछे बसा गांव ही घूम आयें .कुछ युवा वहाँ बैडमिन्टन  खेल रहे थे .पूछने पर बताया कि पुजारी किसी काम से नीचे  गया होगा,थोड़ी देर में आ जाएगा .हम ऊपर ही इधर उधर घूमते रहे . कई जगह सफेद-काले-भूरे झबरीले कुत्ते पड़े सुस्ता रहे थे  .पहाड़ पर लोग कुत्तों का बहुत ख्याल रखते हैं. सारे कुत्ते बहुत हृष्ट पुष्ट थे. और अच्छी ब्रीड के लग रहे थे. थोड़ी देर बाद लौटे  तो पाया, पुजारी लौट आये थे . उन्होंने अंदर जाने से पहले एक हिमाचली टोपी पहनने के लिए दी और कमर में बाँधने के लिए एक कमरबंद सा दिया . बिना इसके किले में प्रवेश वर्जित था. जब रजिस्टर में अपना नाम लिखने की बारी आई तो पाया ऊपर के सारे नाम विदेशी थे , हॉलैंड , इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया ,जर्मनी, इजरायल आदि से पर्यटक थे. भारतीय नाम भी होंगें जरूर पर रजिस्टर के उस पेज पर नहीं थे .हमने अंदर से किला देखा, जिसमे कभी राजा रहते थे पर अभी वो एक साधारण से घर जैसा ही  लग रहा था .लकड़ी से बने इस किले की  अवस्था बहुत जर्जर थी . अच्छी देखरेख की  सख्त जरूरत है . मंदिर वाला कमरा उसने नहीं खोला ,बताय कि वो विशेष अवसरों पर ही खुलता है. किले के प्रांगण से नीचे पूरा सांगला नजर आ रहा था .यहाँ शाम हो चुकी थी ,पर दूर पहाड़ियों पर अभी भी सूरज की रौशनी चमक रही थी....पहाड़ के नीचे का आधा हिस्सा,अँधेरे में घिरा था  और ऊपर की चोटियाँ सूरज की पीली  रौशनी में दैदीप्यमान  थीं. बहुत ही अनूठा दृश्य था .बाद में तो हर शाम यह नज़ारा देखने को मिला.
नीचे उतरना बिलकुल मुश्किल नहीं लगा . गाड़ी हमने वापस भेज दी और धीरे धीरे टहलते हुए बाज़ार का चक्कर लगाते हुए होटल लौट आये. . होटल में गर्मागर्म खाना तैयार था , बिलकुल तवे से उतारे हुए फुल्के और घर सा बिना ज्यादा तेल -मसाले का खाना. ऑफ सीजन में आने के फायदे :)
अगले दिन हमे कालापा के लिए निकलना था.


































लाहुल स्पीती यात्रा वृतांत -- 3 ( रेकॉंग पियो, काल्पा, नाको, टाबो )


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रेकॉंग पियो 
सांगला के बाद हमारा अगला पड़ाव काल्पा था. चंडीगढ़ से ही हमें खूबसूरत रास्ते मिल रहे थे पर काल्पा तक का रास्ता तो वर्णनातीत था. काल्पा से पहले एक छोटा सा शहर है ,रेकौंग पियो (Reckong Peo ) . अगर 'लव एट फर्स्ट साईट'जैसा कुछ होता है तो वो पहली बार महसूस किया मैंने. इस शहर को देखते ही मैं इसके प्यार में पड़ गई. चारों  तरफ से झुके झुके से पहाड़ ,उनके नीचे फूलों से लदे पेड़ और इन सबसे घिरा ये खुबसूरत छोटा सा कस्बा. लिटरली पहाड़ों  की  गोद में बसा लग रहा था .पहली बार इच्छा हुई कि बस यहीं बस जाऊं. थोड़ी देर ही रुके वहां, चमचमाती सडकें थीं, बड़ी बड़ी दुकानें थीं....यानि अनुपम प्राकृतिक छटा के साथ सारी आधुनिक सुविधाएं भी मौजूद थीं. एकाध घंटे वहाँ बिता बाद बड़े बेमन से हम कार में सवार हुए .

काल्पा पहुँच कर होटल की  खिड़की से पर्दा हटाया और सामने नजर आती कैलाश  किन्नर की बर्फ ढंकी चोटियों  ने विस्मय विमुग्ध कर दिया. इतने पास से हिमालय की चोटियों को देखने  का पहला अवसर था.. काल्पा सतलज नदी के किनारे समुद्र तल से 9,711 फीट की उंचाई पर बसा हुआ  है. यहाँ सेब और चिलगोज़े के बड़े बड़े बाग़  हैं. ऊँची नीची पहाड़ियों पर घर और होटल बने हुए हैं. .यहाँ रहने वाले  हिन्दू और बौद्ध धर्म दोनों  के अनुयायी  हैं ,इसी वजह से बहुत भव्य मन्दिर  और  बौद्ध मठ हैं.  शिक्षा का स्तर काफी अच्छा है .करीब 83.75% लोग साक्षर हैं. काल्पा के साथ एक बहुत रोचक जानकारी जुडी हुई है. भारत के पहले वोटर ''शायम शरण नेगी'  काल्पा से ही थे .२५ अक्टूबर १९५१ के सर्वप्रथम चुनाव में सबसे पहले वोट उन्होंने ही डाला था .

काल्पा से टूरिस्ट 'चाक ट्रेकिंग'के लिए जाते हैं, सुंदर पेड़ पौधों और झरनों से घिरा ये छोटा सा ट्रेक है. ऊपर से बहुत ही नयनाभिराम दृश्य देखने को मिलते हैं.  हिमाचल के ग्रामवासियों का जीवन करीब से देखने के लिए 'रोघी गाँव 'भी जाया जा सकता है. वहीँ बीच में सुसाइड पॉइंट भी है .वहाँ से बहुत सुंदर सूर्योदय-सूर्यास्त दिखते हैं. शायद किसी ने आत्महत्या कर ली होगी या फिर वहाँ से गिर कर बचा नहीं  जा सकता, शायद इसीलिए इसका नाम सुसाइड पॉइंट है. काल्पा में  बहुत ही पुराना 'नारायण नागिनी मन्दिर'और'हू-बू-लान-कार  मॉनेस्ट्री'भी देखने योग्य हैं. ये मॉनेस्ट्री  (950-1055 AD) में स्थापित किया गया था पर बाद में इसका नवीनीकरण भी होता रहा है, क्यूंकि यह बहुत ही अच्छी अवस्था में था . मॉनेस्ट्री शहर के बिलकुल बीच में है या शायद इसके गिर्द ही शहर बस गए होंगें.खूब चटख रंगों में दीवारे पेंट की हुई थीं और रंगीन प्ताके,(प्रेयर फ्लैग्स ) बंधे थे .मॉनेस्ट्री देखते हुए हम हम कस्बे के मार्केट की तरफ निकल गए. पतले से रास्ते के किनारे किनारे बने लकड़ी के मकान .कुछ मकान बहुत ही जर्जर अवस्था में नजर आरहे थे.पता नहीं उसमें लोग कैसे रहते होंगे .एक घर के बाहर चार महिलायें अपने काम से फुर्सत पाकर बैठीं गपशप कर रही थीं .सबने हिमाचली टोपी पहनी हुई थी.मैं उनकी तस्वीरें लेने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. 
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कैलाश किन्नर 

मार्केट से निकल कर हम नीचे जाने वाले सडक पर निकल गए. खुले में आते ही  किन्नर कैलाश की खूबसूरत चोटी बिलकुल साफ़ नजर आने लगी , देखकर ऐसा लगता, जैसे बिल्कुल पास ही हो .इस स्थान को शिव जी का शीतकालीन प्रवास माना जाता है. . शायद जीवन की पहली सेल्फी मैंने किन्नर कैलाश के साथ ली :) . सामने सर्पीला रास्ता और बिलकुल सुनसान पर किसी तरह का डर नहीं. इक्का दुक्का लोग आते दिखते या फिर गाड़ी में सर्र से पार हो जाते. शाम ढल रही थी ,ढलान पर फैले चीड़ के वृक्षों के बीच से हवा सिटी बजाती हुई निकल जा रही थी. इतना सुहाना लग रहा था कि मेरा लौटने का मन ही नहीं हो रहा था और मैं नीचे उतरती चली गई .जबकि पता था ,वापसी में इतनी ही चढाई चढनी पड़ेगी पर उपाय सोच लिया था ,जब बिलकुल थक जाउंगी या अन्धेरा हो जाएगा तो ड्राइवर  को फोन कर बुला लूँगी . बेटे को मेरा साथ देना पड़ा.  कहते बुरा लग रहा है पर शायद अपने जाने पहचाने शहरों में हम यूँ अन्धेरा होते वक्त सुनसान सडक पर नहीं घूम पाते. हमारे पास महंगे मोबाइल फोन्स और महंगे  कैमरे भी थे पर पहाड़ों में ज़रा भी खतरा नहीं है . एक मित्र ने विस्तार से व्याख्या कि थी कि पहाड़ में कम जनसंख्या होती है. पुलिस करीब करीब सबको जानती है. फिर कोई वारदात, चोरी वगैरह करके वे भाग भी नहीं सकते , सुरक्षा की इन वजहों के साथ पहाड़ियों का ईमानदार होना भी एक बहुत बड़ा कारण है.अक्सर खाली सड़कों के बिलकुल बीच में बैठकर ,या डांस का पोज देते हुए लोगों की तस्वीरें देखी हैं. मैंने सोचा, मेरी उम्र वो सब करने नहीं पर हिमालय की चोटियों की पृष्ठभूमि में घने जंगलों के बीच से गुजरती सडक पर योगा तो किया ही जा सकता अहै :) और मैंने कई योग मुद्रा में फोटो खिंचवा लीं. जब बिलकुल ही अँधेरा हो गया तो ड्राइवर आकर हमें वापस होटल ले गया. हमें एक घर के अहाते में नाशपाती से लदा एक बहुत बड़ा पेड़ मिला. नाशपाती के पेड़ देखने का भी मेरा पहला अवसर था.सेब के पेड़ तो हर गली कुचे में थे .
हिमाचल में मैंने एक चीज़ गौर की.वहां बहुत शराब पीते हैं लोग .अब शायद निठल्लापन भी इसकी वजह हो.पहाड़ों पर बहुत सुस्त जीवन है और ढेर सारा वक्त है .हर जगह सडक के किनारे खाली बोतल पड़े हुए मिले. एक छोटे से टीले पर चढ़कर हमने फोटो लेने की सोची ,पर चढने के बाद देखा, एक पत्थर की आड़ में दो लोग शराब पी रहे हैं, हम झट से उतर गए.

अगले दिन नाश्ते के बाद अब हम 'टाबो'के लिए निकल पड़े.  अब तक बहुत ही ख़ूबसूरत रास्ते मिल रहे थे .दोनों  तरफ सेब के पेड़, ढेर सारी हरियाली और कलकल बहती नदी.पर अब डेजर्ट माउन्टेन'यानि पहाड़ों का रेगिस्तान शुरू हो गया था . सडक भी बहुत खराब थी. ज्यादातर धूल और पत्थर भरी कच्ची सडक और बहुत ही पतली ,पहाड़ के किनारे बस एक गाड़ी चलने भर जगह. गाड़ी का एक तरफ का पहिया बिलकुल रास्ते के किनारे होता और नीचे गहरी खाई . गाड़ी की स्पीड बीस-तीस से ज्यादा नहीं होती . कहीं कहीं नदी मिलती भी तो बिलकुल मटमैले पानी वाली उफनती हुई। यह विश्व का सबसे लहटरनाक रास्ता है।यू ट्यूब पर कई वीडियो हैं।देखकर कलेजा मुँह को आ जाता है और विश्वास नहीं होता
इन्हीं रास्तों पर हम भी चलकर गए है . हमारे साथ ही एक गाड़ी और थी जिसमें तीन लडकियां और एक लड़का था . ये लोग भी हमारी तरह ही लाहुल स्पीती ट्रिप पर थे.दोनों ड्राइवर की दोस्ती हो गई थी और दोनों एक ही जगह चाय पानी के लिए गाड़ी रोकते. इस इलाके में हर होटल के सामने हमें  'थुक्पा 'लिखा हुआ दिखता .यहाँ की लोकल डिश है. हमने एक जगह ऑर्डर की .पतले से सूप में नूडल्स थे ,कुछ बारीक कटी सब्जियां डली थीं .हमें तो स्वाद पसंद नहीं आया . उस रेस्टोरेंट को दो बहनें चला रही थीं ,बड़े इसरार से हमें खिला रही थीं पर हमसे पूरा खत्म नहीं हुआ. हिमाचल में ज्यादातर स्त्रियाँ दुकानदार ही दिखीं. टाबो जाने के लिए हमें एक पहाड़ के ऊपर जाकर फिर दूसरी तरफ नीचे उतरना था .पहाड़ पर गोल गोल गाड़ी चढ़ते देख रोमांच हो रहा था. ऊपर हवाएं खूब ठंढी हुई जा रही थीं और बादल जैसे राह रोक ले रहे थे. करीब 12,014 फीट की उंचाई पर एक गाव 'नाको 'स्थित है. . नाको में हमने गरमागरम राजमा और चावल खाया ..इतनी ऊँचाई पर ऐसा खाना खाकर मजा आ गया . कुछ ही देर में रेस्टोरेंट कहकहों से गुलज़ार हो गया. किसी  शादी से लौटते हुए एक ग्रुप आया. सब रिश्तेदार बहुत चहक रहे थे . एक जैसे जेवर और हिम्ह्क्ली टोपी पहने स्त्रियाँ बहुत सुंदर लग रही थीं. दूसरी कार वाले लोग 'नाको'में ही रुक कर अगले दिन 'टाबो'पहुँचने वाले थे. उनका ट्रिप तेरह दिन का था जबकि हमार ग्यारह दिन का. नाको झील बहुत खूबसूरत है ,जिसे देखने से हम वंचित रह गए . पहाड़ पर से उतरते हुए मन बड़ा उदास हो गया. 
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कल्पा
'टाबो'पहुँचते हमें शाम हो गई. टाबो 10,760 फीट की ऊँचाई पर स्थित है. इसलिए यहाँ अन्धेरा 8.15 के बाद ही होता है. ये एक छोटा सा गाँव है. होटल पहुंच कर हमने बालकनी से एक अद्भुत नज़ारा देखा . आसमान में चाँद टंगा हुआ था , पहाड़ों के नीचे अंधेरा उतर आया था पर ऊपर के हिस्से सूरज की  रौशनी में नहाये हुए थे .यानि एक ही फ्रेम में चाँद, सूरज की  रौशनी और अंधेरा सब थे :) .पता चला हज़ार वर्ष पुरानी मॉनेस्ट्री बिलकुल पांच मिनट की दूरी पर है . पतली गलियों से होते हुए हम 996 में स्थापित भव्य मॉनेस्ट्री द्वार तक पहुँच गए. यह स्पीती नदी के किनारे स्थित है. इसकी भव्यता और शांति अभिभूत कर देती है.  1996 में दलाई लामा ने यहाँ 'कालचक्र समारोह'का आयोजन किया था जिसमें दुनिया भर से बौध्द भिक्षु आये थे . अन्धेरा हो गया था ,इलिए उनलोगों ने कमरे नहीं खोले .हमें अगले दिन सुबह आने के लिए कहा .हम बाहर स यही घूम घूम कर मॉनेस्ट्री देखते रहे.मॉनेस्ट्री के पीछे बड़े बड़े  स्तूप बने हुए हैं. हल्के घिरते अंधियारे में एक विदेशी युगल हाथों में हाथ डाले बहुत गंभीरता से कुछ बातें करते टहल रहा था. एक झाडी पर कई सारी गौरय्या चहचहा रही थीं, घड़ी देखी साढ़े सात बज गए थे ,पर पर्याप्त उजाला था . काफी देर तक मॉनेस्ट्री की दिव्य शांति की अनुभूति ले हम लौट पड़े. संकरे रास्ते पर मोबाइल का टॉर्च जलाना चाहा पर जरूरत नहीं थी. चटख चांदनी बिछी हुई थी .

होटल में हमारे बगल वाले कमरे में दो लडके ठहरे हुए थे .डिनर के वक्त देखा वे हाथ से दाल चावल खा रहे हैं .मुझे लगा वे जरूर बिहार के होंगें.पर बात की तो पता चला, वे दक्षिण के हैं. दक्षिण में भी लोग हाथों से ही दाल-चावल खाते हैं. दोनों लडके एक महीने की छुट्टी लेकर बैंगलोर से अपनी बाईक पर निकल पड़े हैं. उन्होंने अपनी यात्रा की कोई रूपरेखा नहीं बनाई थी .जहाँ मन हो जाता रुक जाते . रोहतांग से वे लद्दाख की तरफ निकल जाने वाले थे . 
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टाबो

अगले दिन सुबह हम फिर मॉनेस्ट्री में हाज़िर थे . आज उन्होंने सारे कमरे खोल कर दिखाए . मॉनेस्ट्री की भीतरी दीवारों पर बुद्ध के जीवन से संबंधित भव्य विशाल पेंटिंग्स लगी हुई थीं.जो सिल्क के कपड़ों पर की हुई है, पर उनका रंग वैसा ही बना हुआ  है.छत भी पेंटिंग से ढके हुए थे. उन सबको निरखते एक दिव्य अनुभूति हो रही थी. वहाँ से हमने कुछ सुवेनियर्स खरीदे. एक सुंदर सी महिला की  दूकान थी. वहाँ हमने एक प्रेयर बाउल खरीदा . ये एक बड़ा सा कटोरा होता है, जिसकी बाहरी सतह पर लकड़ी का एक छोटा सा स्टिक धीरे धीरे फिराने से बहुत ही मधुर ध्वनि उत्पन्न होती है. इन ध्वनि की तरंगों पर ध्यान लगाते हैं . हमने भी कर  के देखा और उस मधुर संगीत पर मुग्ध हो गए .पर जब मुंबई वापस आकर वही क्रिया दुहराई तो बड़ी क्षीण सी आवाज़ निकली . हमें लगा हमने ठीक से नहीं किया पर बार बार लकड़ी फिराने के बाद भी टाबो जैसी गूंजती आवाज़ नहीं निकली तब ध्यान आया .वह हिमालय की गोद में बसा एक छोटा सा शांत गाँव था . फिजां बिलकुल शांत थी, कहीं कोई शोर नहीं. मुम्बई में खिड़की दरवाजे बंद करने के बाद भी वातावरण में इतना शोर घुला हुआ है कि उतनी मधुर ध्वनि सुनाई पड़ ही नहीं सकती . पर अब यही मधुर दवानी बहुत प्यारी लगती है ,टाबो वाली ध्वनि हम भूल चुके हैं :)


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कल्पा


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हू-बू-लान-कार  मॉनेस्ट्री' 


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नारायण नागिनी मन्दिर' 







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मन्दिर के चांदी मढ़े दरवाजे 








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इतनी सारी ईंटें लेकर चढाई चढ़ता मजदूर 




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कल्पा से नाको के बीच 








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नाको के  रेस्टोरेंट में बारात पार्टी 


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नाको के  रेस्टोरेंट में बारात पार्टी 

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 टाबो मॉनेस्ट्री 







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प्रेयर बाउल 


लाहुल- स्पीती यात्रा-वृत्तांत -- 4 (काज़ा, की मॉनेस्ट्री, किब्बर गाँव )

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स्पीती नदी 
टाबो से दस बजे के करीब हम 'काज़ा'के लिए निकल पड़े. रास्ता वैसा ही भयावह था . ऊँचे पहाड़ के किनारे किनारे कच्चे से संकरे रास्ते .एक तरफ खाई और दूसरी तरफ पहाड़ों  से गिरते छोटे छोटे पत्थर . हरियाली का नामोनिशान नहीं . चारों तरफ सिर्फ भीमकाय पहाड़. यह सोच कि हम हिमालय के अंदर ही अंदर पहाड़ों के बीच घूम रहे हैं, एक अलग सा रोमांच हो रहा था .

स्पीती नदी के किनारे करीब 11,980 फीट की उंचाई पर 'काज़ा'स्थित है .यहाँ सम्भवतः स्पीती घाटी का सबसे बड़ा मार्केट है. यहाँ एशिया का तीसरा सबसे उंचाई पर स्थित गाँव 'किब्बर'और एक पहाड़ी पर बना 'की मॉनेस्ट्री 'टूरिस्ट के लिए सबसे बड़ा आकर्षण  है .हमार ड्राइवर थका हुआ  था .उसने कहा, 'आपलोग आज काज़ा मार्केट, बौध्द मठ वगैरह घूम लीजिये .अगले दिन किब्बर और की मॉनेस्ट्री देखने चलेंगे . हम होटल में सामान रख तुरंत ही मार्केट की तरफ निकल पड़े. बाज़ार सचमुच बहुत बड़ा था , हर तरह की चीज़ें उपलब्ध थीं . चारों तरफ विदेशी टूरिस्ट नजर आ रहे थे . एक बड़े से ग्रुप में से एक विदेशी बहुत अच्छी हिंदी बोल रहा था .उसने बड़े साफ़ हिंदी में कहा , 'पांच चाय देना' . एंटिक चीज़ों की एक बड़ी सी दूकान थी पर वहाँ हर चीज़ दो हज़ार से ऊपर की थी. शायद विदेशियों के लिए ही थी . एक जगह बोर्ड लगा था ,'इजरायली डिशेज़ 'हमने भी एक अजीब से नाम वाला कुछ ऑर्डर किया.पाया वो मैदे  का मीठा चीला था .उसे डोसा के आकार में मोड़कर उसके ऊपर चॉकलेट सॉस से सुंदर डिजाइन उकेरा गया था. (अच्छा ख़ासा महंगा व्यंजन था ) .एक दूकान के बाहर कुछ कप्स बिक रहे थे, उसपर ड्रैगन की आकृति बनी हुई थी .चाय के कप्स खरीदने की  मुझे अजब सी खब्त है, खरीद लिए (और बाद में एक्स्ट्रा लगेज़ हो जाने पर खुद को कोस रही थी ) 

हमने ड्राइवर को लौटा दिया था और पैदल ही घूमते हुए होटल लौटने की सोच रखी थी . रास्ते में एक सुंदर सा बौद्ध मठ था . सभी मठ खूब चटकीले रंग से पेंट किये हुए होते हैं, लाल ,सुनहरे ,हरे  और नीले  रंग बंजर पहाड़ों के मध्य बहुत खूबसूरत लगते हैं . मठ में जर्मनी के एक विदेशी युगल मिले. बातें होने लगीं, हम टाबो से आये थे और काज़ा ,रोहतांग पास होते  हुए मनाली जा रहे थे .इन युगल को मनाली से काज़ा होते हुए टाबो जाना था .महिला रास्ते के बारे में पूछने लगीं. उन्हें इन  खतरनाक पहाड़ी रास्तों पर बहुत डर लग रहा था .मैंने उन्हें आसान सा उपाय बताया ,'कानों में इयरफोन लगा, आँखें  मूंदे बैठे रहिये...आँखें खोलिए ही नहीं कि रास्ता  नजर आये 'पुरुष खूब हो हो कर हंसे और बोले...''बिलकुल ऐसा ही करना ' :)

मठ के पीछे एक पहाड़ी थी और पहाड़ी पर एक मंदिर था .हमारे पास समय था ,मन्दिर में श्रद्धा से ज्यादा हमें उस पहाड़ी पर चढने और ऊपर से पूरा 'काज़ा'देखने की इच्छा थी . सीढियां बनी हुई थीं पर चट्टानों की ही और बहुत ही बेतरतीब .किसी तरह चढ़ ही गए . ऊपर से ढलते सूरज की सुनहरी रोशनी में नहाया काज़ा देख मंत्रमुग्ध हो गए . दो तीन झबरीले कुत्ते भी हमारे साथ ही आये थे . पहाड़ के लोग अपने कुत्तों का बहुत ख्याल रखते हैं. सब कुत्ते हमें बहुत ही हृष्ट पुष्ट और सुंदर नजर आये .अपने यहाँ जैसे सडक पर घूमते उभरी हड्डियों वाला एक भी कुत्ता नहीं दिखा . होटल की तरफ लौटते हुए अन्धेरा हो गया था पर बादलों से लुका छिपी खेलते चाँद भरपूर रौशनी बिखेर रहा था .मैं तस्वीर लेने की कोशिश  कर रही थी. पास से गुजरते एक बुजुर्ग सज्जन ने कहा, कल तस्वीर लेना...कल पूर्णिमा का चाँद होगा .तस्वीर ज्यादा अच्छी आएगी ."मैं तो  जैसे खुशी से झूम उठी .अगले दिन हम चंद्रताल देखने जाने वाले थे यानि कि पूरे चाँद की रात हम चंद्रताल देख पायेंगे .ऐसा संयोग देख ,अपनी किस्मत पर नाज़ हो उठा (और इसका फल भी मिल गया ...आगे बताउंगी ) .
उन सज्जन का भी एक होटल था पर लगभग खाली था .वह बाज़ार से कुछ दूरी पर था और सडक से नीचे .वे बहुत चिंतित थे कि लोगों को उनके होटल के बारे में पता ही नहीं चलता .बहुत आग्रह से वे हमें अपना अहोत्ल दिखाने ले गए .साफ़ सुथरे सभी सुविधाओं से युक्त सुंदर कमरे थे .हमने उन्हें सलाह दी कि आप अपने होटल का ऑनलाइन विज्ञापन करें .दूर बैठे लोग सिर्फ कमरा और होटल देखकर बुकिंग कर देते हैं . वे बुजुर्ग इतने नेट सैव्वी नहीं थे फिर भी हमने उन्हें काफी समझाया .वे कितना कर पाए,नहीं पता .उनके कॉफ़ी के आग्रह को नम्रतापूर्वक ना कहना पड़ा .अनजान जगह थी,रात हो रही थी और हमें होटल वापस लौटना था .

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दुसरे दिन जल्दी ही तैयार हो हम ,'की मॉनेस्ट्री', देखने निकल पड़े. ऊँची पहाड़ी पर बना यह किसी धार्मिक स्थल से  ज्यादा एक किले सा लगता है. हज़ारों वर्ष पुराना ,स्पीती घाटी का यह सबसे बड़ा मॉनेस्ट्री है. 13,668 फीट की उंचाई पर स्थित इस मॉनेस्ट्री कि स्थापना 1000 AD में हुई थी. यहाँ लामाओं का प्रशिक्षण केंद्र भी है. दूर से यह घरों का एक गुच्छा सा लगता है. एक के ऊपर एक बने ,एक दूसरे से सटे  हुए ढेरों घर इस मॉनेस्ट्री को एक अनोखा रूप प्रदान करते हैं. एक लामा हमें मोनेस्ट्री घुमाने ले गए .अंदर बहुत सारे कमरे थे और एक बड़ा सा प्रार्थन भवन था .ध्यानावस्थित बुद्ध की बड़ी सी मूर्ति थी. हमने भी आँखें बंद कर थोड़ी देर प्रार्थना की .वहाँ से लामा हमें एक दूसरे  प्रार्थना भवन में ले गए और एक बिस्तर की तरफ दिखाया कि 'दलाई लामा'जब भी आते हैं, यहीं पर आराम करते हैं. अद्भुत शांति थी चारों तरफ . कई कमरों में घुमाते हुए वे हमें मॉनेस्ट्री की छत पर ले गए .वहाँ से चारों तरफ का दृश्य अनिवर्चनीय था .एक तरफ बर्फ से लदी हिमालय की चोटियाँ ,दूसरी तरफ बहती हुई स्पीती नदी के किनारे फैली विस्तृत घाटी ..."की गाँव'  के छोटे छोटे घर और उसके सामने हरे भरे खेत . अपूर्व दृश्य था .
वहाँ से घुमावदार रास्ते से होते हुए हम 'किब्बर गाँव'की तरफ बढे .यह एशिया का तीसरा सबसे अधिक  ऊँचाई(14,200 फीट) पर स्थित गाँव है. शायद यह स्पीती घाटी का सबसे हरा भरा क्षेत्र है. पहाड़ों पर खूब हरियाली फैली थी. सफेद दीवारों और लाल छतों वाले करीब सौ घरों का एक छोटा सा गाँव है 'किब्बर' .यहाँ एक छोटा अस्पताल और स्कूल भी हैं . गाँव में बिजली रहती है और छत पर लगा डिश एंटेना बता रहा था कि कई घरों में टी वी भी है..गाँव से ऊपर दूर तक फैला समतल क्षेत्र है,जहां गाँव वाले खेती करते हैं .धान की फसल लहलहा रही थी. घरों के बाहर याक के खाल और सींग भी सूखते दिखे. ठंढ नहीं थी पर बहुत ही तेज हवा चल रही थी. एक बस से कुछ युवा आये हुए थे .वे लोग हाथ फैला ,शाहरुख और काजोल के पोज में गाना गाते हुए फोटो खिंचवा रहे थे .सुदूर सफेद बर्फीली चोटियों के नीचे लाल छतों वाले घर और उनके सामने फैले लहलहाते हरे खेत बहुत मनमोहक लग रहे थे. हमें देर तक वहीँ बैठे रहने का मन था पर अब चंद्रताल के लिए निकलना था .सो वापस लौटना पड़ा रास्ते  में पैदल चलते एक स्पेनिश युवा जोड़े ने लिफ्ट मांगी .
.लड़की तो नान नक्श और रंग  से बिल्कुल भारतीय लग रही थी .वे लोग ट्रेक करते हुए किब्बर गाँव तक गए थे पर वापस लौटते हुए  उनका पानी खत्म हो गया था और सूरज 
की तेज किरणें भी बेहाल कर रही थीं . पूछने पर बताया कि उन्हें भारत बहुत अच्छा लगा और अक्सर आया करेंगे (एक भारतीय से भारत में लिफ्ट और क्या कहते...वैसे अच्छा भी लगा ही होगा :) ) 









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टाबो से काज़ा का सुंदर दृश्य 

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काज़ा का बाज़ार 


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काज़ा का बौद्ध मठ 

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खतरनाक रास्तों से डरने वाली जर्मन 



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काज़ा का बौद्ध मठ 


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काज़ा का पहाड़ी मन्दिर 



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पहाड़ी के ऊपर से दखता काज़ा 


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ढलती शाम में काज़ा



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की मॉनेस्ट्री 


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किब्बर गाँव 



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किब्बर गाँव के खेत 


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किब्बर गाँव के पीछे बर्फ लदी चोटियाँ 



लाहुल -स्पीती यात्रा वृत्तांत -- 5 (चंद्रताल )


काज़ा से  हम चंद्रताल झील देखने के लिए रवाना हुए. इस ट्रिप पर आने से पहले मैंने लाहुल स्पीती पर कुछ यात्रा संस्मरण पढ़े थे .उसमे सबसे ज्यादा जिन स्थानों को देखने की इच्छा  थी वो था भारत-तिब्बत  सीमा पर बसा अंतिम गाँव 'चितकुल'और 'चंद्रताल झील'. झील का सबने ऐसा वर्णन किया था कि बस लग रहा था कब वो घड़ी आये और मैं झील के सामने हूँ . चंद्रताल में चन्द्रभागा पहाड़ियों में स्थित चन्द्रा ग्लेशियर की वजह से हमेशा पानी भरा रहता है  . कहा जाता है कि युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग जाने के लिए इंद्र के रथ पर सवार होकर  यहीं से चले थे . इस झील का पानी पल पल रंग बदलता है. कभी गहरा नीला, कभी फिरोजी नीला तो कभी आसमानी .नीले रंग के हर शेड इस पानी में दिखते हैं. पानी इतना साफ़ है कि बगल की हिमाच्छादित चोटयों की परछाईं पानी में ऐसी लगती हैं मानो झील में ही कोई पहाड़ उग आया हो. 

रास्ते में एकाध विदेशी तो इन पहाड़ी रास्तों पर साइकिल से जाते दिखे. कुछ दूर जाने पर एक लम्बे चौड़े ,बढ़ी हुई दाढ़ी और लम्बे बालों वाले विदेशी ने गाड़ी को हाथ दिखाया . बिलकुल आदि मानव लग रहा था. हमने गाड़ी रोक कर उन्हें और उनके पार्टनर को लिफ्ट दी . पुरुष ऑस्ट्रिया से थे और महिला ऑस्ट्रेलिया की  थीं. बातचीत होने लगी.पता चला पुरुष का  ये भारत का आठवां ट्रिप है . वे हमारे देश के बारे में हमसे ज्यादा जानते थे ,सुदूर दक्षिण, उत्तरांचल, सभी जगहों के छोटे छोटे शहरों का नाम वे इतनी सहजता से ले रहे थे कि हमें ही झेंप हो आई. मैं जब भी विदेशियों को इस तरह घूमते देखती थी तो सोचती थी आखिर ये इतने लम्बे लम्बे ट्रिप मैनेज कैसे कर लेते हैं. इसमें तो बहुत पैसे लगते हैं और नौकरी में इतनी छुट्टी तो मिलती नहीं.अपने देश में तो यही देखती हूँ, मुश्किल से हफ्ते-पन्द्रह दिनों की छुट्टी लोग निकाल पाते हैं . उनलोगों ने बताया कि वे नौकरी कर पैसे जमा कर लेते हैं और फिर घूमने निकल जाते हैं. जिस देश में जाते हैं,वहाँ भी काम कर लेते हैं. महिला ने बतया कि तमिलनाडू में पन्द्रह दिनों तक उसने वृक्षारोपण का कार्य किया .फ्रांस में दोनों जन घोड़ों की देखभाल कर लेते थे .और फिर इनके ज्यादा खर्चे भी नहीं. भी नहीं .वे लोग ज्यादा से ज्यादा लिफ्ट लेकर ही चलते हैं या फिर बसों में सफर करते हैं. होटल में नहीं रुकते,अक्सर 'होम स्टे'करते हैं. जिसमे बहुत कम पैसे लगते हैं. पर्यटन स्थलों  पर ;होम स्टे'का बहुत चलन है. स्थानीय लोग अपने घर में एकाध कमरे यात्रियों को होटलों की अपेक्षा बहुत कम किराए पर दे देते हैं .खाने का भी इंतजाम कर देते हैं. इस तरह  उन्हें भी घर बैठे अच्छे पैसे मिल जाते हैं और घुमक्कड़ लोगों के पैसे भी बच जाते हैं. 2 बजे के करीब हम 'लोसार'पहुँच गए. इन विदेशी युगल को वहीँ उतरना था .वहाँ से वे मनाली जाने के लिए लिफ्ट का इंतज़ार करने लगे . स्टेफी को मेरी एक अंगूठी बहुत अच्छी लगी .सफर में मैं हमेशा नकली टॉप्स, अंगूठी ही पहनती हूँ..कहीं गिर भी जाए तो चिंता नहीं. और यूँ ही नहीं कहते नकली चीज़ें ज्यादा चमकती है. अंगूठी के नग की चमक स्टेफी को भा गई थी. और मैंने वो अंगूठी उतार कर उसे पहना दी. वो बिलकुल घबरा कर ना ना कहने लगी .फिर मैंने समझाया कि असली नहीं है, बहुत सस्ती है . स्टेफी बार बार गले  मिल कर थैंक्स कहने लगी . वो ऑस्ट्रियन भी मुस्करा रहा था.

मैंने ड्राइवर सौरभ से कहा, 'यहीं खाना खा लेते हैं पर वो बोला, 'नहीं नहीं आगे खायेंगे ' .मैंने सोचा ,'ये तो इसी रास्ते पर आता जाता है...इसे ज्यादा पता होगा,शायद इसकी कोई फेवरेट जगह भी हो  " .पर आगे ऐसा सुनसान और बीहड़ रास्ता था ,कि एक चाय की टपरी भी नहीं थी .सौरभ  का भूख से बुरा हाल  था . हमलोग बिस्किट,नमकीन लेकर चलते थे. पर ऐसे सुनसान खतरनाक पहाड़ी रास्तों पर धूप में मजदूरों को काम करते देख मुझे इतना बुरा लगता कि हर बार मैं गाड़ी रोक कर उन्हें सबकुछ दे देती .बल्कि उन्हें देने के लिए ,स्पेशली जूस, बिस्किट वगैरह खरीद कर रखने भी लगी थी . थोड़ी देर पहले ही मैंने गुलाबी दुपट्टे ओढ़े, कुम्हलाये चेहरे वाली कुछ कोमलांगियों को सब दे दिया था .'कुंजुम पास 'के पास दूर से ही रंग बिरंगे प्रेयर फ्लैग्स टंगे देख हमें आस बंधी .सौरभ ने कहा, 'यहाँ जरूर कोई ढाबा होगा' . पर वहाँ सिर्फ बड़े बड़े प्रेयर  ड्रम्स जिन्हें गोल गोल घुमाते हैं ,लगे हुए थे .बुद्ध की एक मूर्ति थी और रंगीन पताके टंगे हुए थे. हिमालय की सफेद चोटियाँ ,इतनी  पास लग रही थीं कि लग रहा था बस कुछ कदम की दूरी पर हैं (जबकि काफी दूर थीं ) .थोड़ी फोटोग्राफी कर हम आगे चल दिए. लाहुल स्पीती के सारे रास्ते तो खराब ही हैं पर चंद्रताल का रास्ता ख़ासा ऊबड़खाबड़ है .कई जगह रास्ते पर ही झरना बह  रहा था .कहीं कहीं हमें उतर कर पैदल चल रास्ता पार करना पड़ा. पानी इतना बर्फीला  था कि दो मिनट में ही जान निकल गई . चंद्रताल के पास पहुँचते दूर से ही कुछ टेंट नजर आने लगे पर हमने कहा कि झील के बिलकुल पास वाले टेंट में रुकेंगे . हलांकि झील के पास टेंट लगाने की  मनाही है ताकि झील की प्राकृतिक सुन्दरता बरकरार रहे  और मानव जाति उसे कोई नुक्सान ना पहुंचा सकें. यह एक बहुत ही अच्छा कदम है . थोडा और आगे बढ़ने  पर कई सारे रंग बिरंगे टेंट लगे हुए दिखे..कहीं जीप ,मोटरसाइकिल , मिनी बस लगी हुई थी .काफी सारे लोग नजर आ रहे थे . पूछने पर पता चाल, यही अंतिम पड़ाव है.इसके बाद टेंट लगाने की  मनाही है. तेंग जिंग ने हमें टेंट दिखाया .हमने सामान रखा और उस से फरमाईश की जो कुछ भी सबसे जल्दी बन सकता है, बना कर हमें खिलाये 'उसने कहा, सब्जी डली खिचड़ी बनवा दे रहा है. हम सहर्ष तैयार हो गए. मिनी बस के लोग 'चंद्रताल'देखने  जाने के लिए बस में सवार हो रहे थे . सौरभ को भूख भी लगी थी और थोड़ी देर में रात हो जाती. तेंग जिंग ने मेरी दुविधा देख कर कहा , 'आज तो पूर्णिमा है...चांदनी में चंद्रताल झील देखना एक अनोखा अनुभव है 'कैम्प के सारे लोग जायेंगे . वो लकडियाँ ले कर चलेगा. झील के किनारे कैम्प फायर भी होगा. 

हम भी खुश हो गए बल्कि अपने  भाग्य पर इतराने ही लगे .अब चारों तरफ नजर डाली . जहाँ टेंट लगा था वो जगह चारों तरफ पहाड़ियों से घिरी हुई थी . लग रहा था कोई बड़ा सा कटोरा है और हम सब उसके अंदर चल फिर रहे हैं. घिरे  खूब तेज हवा चल रही थी . मैं आँखें मूँद सब आत्मसात करने की कोशिश कर रही थी. कभी सपने में भी नहीं सोचा था .आबादी से इतनी दूर पहाड़ियों के  मध्य खुले आसमान तले  ऐसे टेंट में कभी रह पाउंगी .वहाँ सारी सुविधाएं थी. एक बड़े से टेंट को डायनिंग हॉल का रूप दे दिया गया था . छोटी छोटी चौकियों सी मेजें लगी हुई थीं..जमीन पर बैठकर खाना था .कुछ और युवा लडके  लडकियां भी आ गई थीं. वे लोग मनाली से आ रहे थे .एक नई चीज़ भी लगी और देखकर ख़ुशी भी हुई. लड़के लड़कियों का मिला जुला ग्रुप था .दो ग्रुप मुंबई से ही थे. एक ग्रुप में तीन लडकियां और एक लड़का. एक में तीन लड़के और एक लडकी थी.एक ग्रुप हैदराबाद से था उनमें पांच लडके और एक लडकी थी. हैदराबाद का ग्रुप प्लान कर पूर्णिमा के दिन ही चंद्रताल देखने आया था .बाकियों का संयोग था . खाना खा कर टेंट में थोड़ी देर  आराम किया ,फिर चाय पी और आठ बजे के करीब बीस पच्चीस लोगों का दल चंद्रताल झील की तरफ चल पड़ा....झील बिलकुल पास नहीं थी
.थोड़ी दूर  तक गाड़ी से जाकर फिर एक छोटी सी पहाड़ी और फिर एक छोटा सा नाला पार कर झील के पास पहुंचा जा सकता  था ..पूर्णिमा तो थी पर चाँद बादलों की ओट में था .मैंने आशंका जताई तो तेंग जिंग ने कहा, 'अभी हवा चलेगी और बादलों को उड़ा ले जायेगी .मुश्किल से घंटे भर में चाँद पूरी तरह निकल आएगा '.तेंग जिंग के साथ काम करने वालों ने कम्बल ,लकडियाँ, मिटटी तेल की बोतल उठा रखी  थी. झील अँधेरे में डूबी थी . मोबाईल के टॉर्च से पानी देखा...पानी में हाथ डाला....पानी इतना ठंढा था ,मानो करेंट लग गया हो. तब तक लकड़ियों को जमा कर जला दिया गया था और सब घेर कर बैठ गए थे . गाना बजाना भी होने लगा .तेंग जिंग के साथ के एक छोटे लड़के ने बड़ी मीठी आवाज़ में एक के बाद एक पहाड़ी गाने सुनाये . पर मेरा मन नहीं लग रहा था.बार बार नजर बादलों की तरफ चली जाती . सब मुझे आश्वस्त करते...बस थोड़ी देर में ही बादल उड़ जायेगे . लेकिन घंटे पर घंटे गुजरते गए . ऐसे खुले में पहाड़ों के बीच ,अनजान लोगों के साथ कैम्प फायर करना भी कम रोमांचक नहीं था .पर मुझे तो चंद्रताल देखना था :( .आखिर घड़ी का काँटा बारह  पार कर गया तो हैदराबाद वाल ग्रुप उठ गया .उन्हें सुबह मनाली के लिए निकलना था और रात में मनाली से दिल्ली की बस पकडनी थी . उनके ड्राइवर और सौरभ में अच्छी दोस्ती हो गई थी .सौरभ ने कहा , 'हम भी साथ ही निकल चलेंगे.रास्ते में कहीं गाड़ी अटकी तो एक दूसरे  की सहायता कर पायेंगे .'मन मसोस कर मैं भी उठ गई .मुंबई वाल ग्रुप तेंग जिंग के साथ वहीँ रुक गया .उन्हें काज़ा जाना था, सुबह निकलने की कोई जल्दी नहीं थी. मैंने सौरभ से कहा, 'जाने से पहले सुबह एक बार झील तक ले आना "उसने हामी भरी . फिर मोबाइल के टॉर्च की रौशनी में हम वही नाला और पहाड़ी पार करते टेंट में आकर सो गए . 

हमलोग तो सुबह उठकर झील से मिलने के लिए तैयार हो गए पर 'सौरभ महाशय'उठें ही ना. तेंग्ज़िंग,उसके साथ के सारे लडके भी सो रहे थे .जब दूसरा ग्रुप  मनाली जाने के लिए बिलकुल तैयार हो गया तो सौरभ हडबडाते हुए उठा और  बड़े रुआंसे स्वर में बोला...'ऐसे रास्ते पर ड्राइव कर शरीर इतना थक गया था ,उठ नहीं पाया .अब अगर इनलोगों के साथ नहीं गए और गाड़ी कहीं  फंस गई तो बहुत मुश्किल होगी. आपलोगों ने देखा ही है, दूर दूर तक दूसरी गाड़ी नहीं दिखती .वैसे आप जैसा कहें, लेकिन गाड़ी चार चार घंटे फंसी रह जाती है. "उसकी बात सुन,.सब वापस जाने के लिए तैयार हो गए . उलटा मुझे समझाते रहे, 'टेंट में रही, बारह बजे रात में   ट्रेकिंग की ,झील के  के किनारे कैप फायर किया, ये क्या कम है " ....कम तो नहीं है फिर भी चंद्रताल तो नहीं देख पाई ना :( (मेरा छोटा बेटा अपूर्व अपने दोस्तों संग 'चंद्रताल'देख  आया  ) शायद कभी मैं भी जाऊं .

























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चन्द्रताल जिसे देखने से वंचित रहे :(


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चन्द्रताल



लाहुल स्पीती यात्रा वृत्तांत -- 6 (रोहतांग पास, मनाली )

मनाली का रास्ता भी खराब और मूड उस से ज्यादा खराब . पक्की सडक तो देखने को भी नहीं थी .बहुत दूर तक बस पत्थरों भरा कच्चा  रास्ता. दो जगह गाड़ी भी अटकी ,हम फिर से बर्फीले  पानी में चले  'रोहतांग पास'आया तो देखा कई लोग पुल के नीचे पत्थरों पर खड़े हो तस्वीरें खिंचवा रहे हैं. वो घटना याद  आगई.जब ऐसे ही स्टूडेंट्स को लेकर आई बस किनारे खड़ी थी .सारे बच्चे उतर कर फोटो खींच रहे थे और अचानक से बाँध का पानी छोड़ा गया. कई बच्चे उस तेज बहाव में बह गए :( . 'रोहतांग  पास'के विषय में स्कूल के जमाने से ही पढ़ा था पर यह घटना याद आते ही उतरने की इच्छा नहीं हुई . हम आगे बढ़ गए .

मनाली के पास आते ही सडकें अच्छी मिलने लगीं और आस पास सब कुछ धुंध में लिपटा हुआ .नीचे सारी घाटी बादलों से ढकी नजर आ रही थी .मनाली में हमारा होटल माल रोड पर ही था . माल रोड पर कोई ऑटो,कार कोई भी सवारी नहीं आ सकती . ढेरों के ढेर लोग पैदल ही घूमते फिरते नजर आ रहे थे .हम भी होटल में फ्रेश होकर नीचे आ गए . कहीं चाट खाते, कहीं कुछ शोपिंग करते ,आइस्क्रीम खाते माल रोड पर ही टहलते रहे . मालिश करने वाले हाथों में तरह तरह की तेल की शीशियाँ  लिए घूम रहे थे .कई लोग उनसे अपने थके पैरों की मालिश करवा थकान उतरवा रहे थे. यह देख अच्छा  लग रहा था ,भारतीयों में अब घुमने का शौक काफी बढ़ गया है और लोग परिवार सहित घुमने निकलते हैं. घर के बड़े बुजुर्ग को भी साथ लेकर चलते हैं . एक दस-पन्द्रह लोगों का ग्रुप था .हर उम्र के लोग थे .उनमें एक बूढी महिला जो जरूर माँ और दादी माँ होंगी.उनके पैरों की मालिश करवाई जा रही थी .पूरा परिवार उन्हें घेर कर खड़ा था और हंसी मजाक कर रहा था. बारह बजे रात तक बहुत गहमागहमी थी ,बाद मे भी रही होगी पर हम वापस होटल चले आये .

 मनाली शहर 6,726 फीट की उंचाई पर कुल्लू घाटी के उत्तरी छोर के निकट व्यास नदी की घाटी में स्थित है .यह   हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों का एक महत्वपूर्ण हिल स्टेशन है। प्रशासकीय तौर पर मनाली कुल्लू जिले का एक हिस्सा है, जिसकी जनसंख्या लगभग 30,000 है। यह छोटा सा शहर लद्दाख और वहां से होते हुए काराकोरम मार्ग के आगे तारीम बेसिन में यारकंद और ख़ोतान तक के एक अतिप्राचीन व्यापार मार्ग का शुरुआत था।
मनाली और उसके आस-पास के क्षेत्र भारतीय संस्कृति और विरासत के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इसे सप्तर्षि का घर बताया गया है।  मनाली शहर का नाम मनु के नाम पर पड़ा है। मनाली शब्द का शाब्दिक अर्थ "मनु का निवास-स्थान"होता है। पौराणिक कथा है कि जल-प्रलय से दुनिया की तबाही के बाद मनुष्य जीवन को दुबारा निर्मित करने के लिए साधु मनु अपने जहाज से यही पर उतरे थे। मनाली को "देवताओं की घाटी"के रूप में जाना जाता है। पुराने मनाली गांव में ऋषि मनु को समर्पित एक अति प्राचीन मंदिर हैं।
1980 के शेष दशक में कश्मीर में बढ़ते आतंकवाद के बाद मनाली के पर्यटन को जबरदस्त बढ़ावा मिला. जो गांव कभी सुनसान रहा करता था वो अब कई होटलों और रेस्तरों वाले एक भीड़-भाड़ वाले शहर में परिवर्तित हो गया।
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मनाली शहर 6


हिडिम्बा मन्दिर ---- 
लोगों ने बताय कि हिडिम्बा मंदिर और मनु मंदिर तक पैदल ही जाया जा सकता है . हमने पैदल ही जाने का निश्चय किया. ज़रा मनाली कि ऊँची नीची सुरम्य पहाड़ी रास्तों पर तसल्ली से घूमने का मन था. माल रोड से मात्र दो किलोमीटर की दूरी  पर है .,यह मंदिर परिसर ऊँचे ऊँचे घने देवदार के वृक्षों से घिरा हुआ है और मन्दिर तक का रास्ता बहुत ही खूबसूरत बगीचे से होकर जाता है.  मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है. ,हिडिम्बा मंदिर पगोडा शैली में काष्ठ कला से निर्मित  बहुत ही प्राचीन मन्दिर है.इस मन्दिर का निर्माण १५५३ में हुआ था.मन्दिर की उंचाई लगभग ४० मीटर . चौकोर छत हैं और सबसे ऊपर शंकु सी आकृति पीतल से मढ़ी हुई है. मन्दिर के बाहर और छत से कई जंगली जानवरों, बारहसिंघा आदि के सींग टंगे हुए हैं.गर्भ गृह के अंदर हिडिम्बा देवी की प्रतिमा एक बड़े शिला के रूप में विराजमान है.मनाली के लोग और कुल्लू राजवंश के लोग हिडिम्बा  देवी को कुलदेवी के रूप में पूजते हैं.सदियों से उनकी पूजा करते चले आ रहे हैं. हिडिम्बा मंदिर से कुछ ही दूरी पर घटोत्कच का मंदिर भी है.

मन्दिर के बाहर कुछ पहाड़ी औरतें रुई के बड़े गोले से खरगोश लेकर खड़ी थीं. वे सबसे जिद कर रही थीं कि दस रुपये देकर खरगोश को लेकर फोटो खिंचवायें.हमलोगों की इच्छा नहीं  थी .जब उन महिलाओं की तस्वीरें लेनी चाही तो उनलोगों ने मुंह फेर लिया :) फिर मैंने भी दस रुपये देकर फोटो खिंचवा ली .  

हिडिम्बा मन्दिर के पास म्यूजियम ऑफ ट्रेडीशनल हिमाचल कल्चर है। इस संग्रहालय से हिमाचल के  हस्तशिल्प तथा कला के नमूने खरीद सकते हैं।

इसके बाद हम मनु मंदिर की तरफ चले .मनु मंदिर बहुत उंचाई पर स्थित है, यह अक्सर  बादलों से घिरा रहता  है. यहाँ से पूरी मनाली को देखा जा  सकता है.मंदिर लकड़ी और पत्थर से  बना हुआ है और उसपर बहुत सुंदर नक्काशी की  हुई है. जमीन संगमरमर का है. पुराणों के अनुसार जब पूरा संसार जल प्रलय में डूब गया था तो मनु, सप्तऋषियों के साथ एक नाव पर सवार हो उंचाई पर स्थित मनाली आ गए थे . और इसे अपना निवास स्थान बनाया. ये भी कहा  जाता है कि ऋषियों ने यज्ञ कर एक स्त्री 'श्रद्धा 'का निर्माण किया और मनु और श्रद्धा के के सन्तान से इस संसार का निर्माण हुआ. हम सब मनु की सन्तान हैं. मनाली शब्द मनु + आलय से बना  है यानि ये मनु का निवासस्थान है. 



मनाली में माल रोड से करीब चार किलोमीटर दूरी पर वशिष्ठ नामक एक छोटा-सा गांव बसा हुआ है। इस गांव में मुनि वशिष्ठ और भगवान राम को समर्पित कई पुराने मंदिर हैं। ‘सतयुग में महाऋषि वशिष्ठ ने मनाली में रह कर पूजा की थी। उनका एक आश्रम अयोध्या में भी था। भगवान राम के समय वे अयोध्या में रह कर उनकी शिक्षा का काम देखते थे। उसके बाद वे पुन: मनाली आ गये थे। पांच हजार साल पहले वे अंतर ध्यान हो गये। तब यह मूर्ति प्रकट हुई। जो इस मंदिर में स्थापित है।’यहीं पर ठंडे और गर्म चश्मे हैं, जहां आप भी स्नान कर सकते हैं। महिलाओं के लिए बने कुण्ड में बहुत सारी स्त्रियाँ स्नान कर रही थीं.  उनमे ज्यादातर विदेशी महिलायें थीं. मुझे अल्बर्ट का कथन याद आ गया कि वे लोग होम स्टे करते हैं,सस्ते जगहों पर रहते हैं. होटल में नहीं टिकते कि नहाने की अच्छी सुविधा हो.इसीलिए विदेशी,इन गर्म कुण्ड का सबसे ज्यादा लाभ उठाते हैं. मैं तो सिर्फ पानी में पैर डालकर आ गई. 
इसके बगल में राम मंदिर है। यहां के पुजारी के अनुसार यह मंदिर लगभग चार हजार साल पहले बना था। १६०० ई० में राजा जगत सिंह ने इसका उद्घार किया।

पास में ही  तिब्बती शरणार्थियों द्वारा 1960 में निर्मित गाधन थेकचोलिंग गोम्पा स्थित है। पारम्परिक गोम्पाओं की तरह चटख सुनहरे और लाल रंग से सजे इस बौद्ध मंदिर में शाक्य मुनि बुद्ध की प्रतिमा विराजमान है। गोम्पा की बाहरी दीवार पर तिब्बत में 1987 से 1989 के बीच चीनी कार्रवाई में मारे गए नागरिकों के नाम लिखे हुए हैं। मंदिर बना हुआ है। जो कि १८०० साल पुराना कहा जाता है।

थोड़ी दूर पर ही व्यास नदी के किनारे क्लब हाउस है . क्लब हाउस में मनोरंजन की बहुत सारी चीज़ें हैं . पर मुंबई से हम खुले में पहाड़ों और नदी के सान्निध्य के लिएय आये थे. बंद कमरे के अंदर एक पल भी बिताने की इच्छा नहीं थी. हम क्लब हाउस नहीं गए वहीँ.बहती व्यास नदी के किनारे थोड़ी देर बैठकर वापस आ गए.

सुबह जल्दी ही हम तैयार होकर चंडीगढ़ के लिए निकल पड़े. अब वापसी थी. पूरे रास्ते व्यास नदी साथ साथ बहती रही. सडक के एक तरफ कलकल बहती साफ़ पानी वाली व्यास नदी और दूसरी तरफ पेड़ों के झुरमुट. रास्ते में एक रेस्टोरेंट में हमने चाय पी. रेस्टोरेंट का ज्यादा हिस्सा नदी पर ही बना हुआ था . ऐसा आभास हो रहा था मानो नाव पर बैठ कर चाय भजिये खा रहे हों.इतना खूबसूरत रास्ता था कि मन हो रहा था ,चलते जाएँ और हमें चलते ही जाना था.आज पूरे दिन सफर ही करना था. मंडी पहुँचते रात हो गई .वहीँ  एक होटल में हमने आराम किया और फिर अगली सुबह चंडीगढ़ के लिए निकल पड़े. मुंबई की फ्लाईटशाम की थी पर हम काफी जल्दी पहुँच गए थे . चंडीगढ़ का मशहूर जुबली पार्क देखा, जहां अक्सर फिल्मों की शूटिंग होती है. पार्क बहुत खूबसूरत था पर पर पार्क शाम को ही घूमना चाहिए, दिन की चटख धूप में नहीं. फिर भी हमारी तरह कुछ और सिरफिरे भी घूम रहे थे थे ,पता नहीं उनकी क्या मजबूरी थी,हमें तो समय काटना था . 

 एयरपोर्ट पर पता चला हमारा लगेज ज्यादा हो गया है . टाबो  से, प्रेयर बाउल, लोहे और काष्ठ की कुछ आकृतियाँ, काज़ा से चाय के कप्स, मनाली से भी लकड़ी का मध्यम आकार का सजाने के लिए एक  प्रेयर ड्रम ( ,जिसके भीतर हज़ार बुद्ध मन्त्र लिख कर रखे हुए होते हैं. ऐसी मान्यता है कि ड्रम को एक बार घुमाने का अर्थ है, हज़ार मन्त्रों को पढ़ लेना .इसी से पूरे हिमाचल में जगह जगह बीच सडक ,चौराहे पर प्रेयर ड्रम्स  लगे हुए हैं और आते जाते लोग इन्हें क्लॉकवाइज़ घुमाते रहते हैं.) सेबों की  तीन पेटियां जिनमें चार चार किलो सेब थे ,खरीद लिए थे . बाक़ी सारे सामान तो अटैची के अंदर थे .सेब ही बाहर थे . (शुक्र है सतलज नदी के किनारे से चुने सुंदर आकृति वाले गोल-चिकने पत्थर गाड़ी में ही छूट गए थे,वरना कुछ वजन वे और बढ़ा देते .अधिकारी ने छह हजार का बिल बना कर दे दिया. जितने का सामान नहीं ,उतने का तो ले जाने का किराया हो जाता. मन मसोस कर सेबों को ही छोड़ देने का निश्चय किया  .सोचा था ,पड़ोसियों को, दोस्तों  को ताजे-मीठे हिमाचली सेब खिलाऊँगी पर सोचा कब पूरा होता है. उदास मन से वहीँ ट्रॉली में पड़े सेबों को निहारते वापस चले आये :( 


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हिडिम्बा मंदिर 







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महर्षि मनु मंदिर 

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महर्षि मनु मंदिर 

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साथ साथ चलती व्यास नदी .




"काँच के शामियाने "पर अभिषेक अजात के विचार

बहुत बहुत आभार अभिषेक अजात । आपने किताब पढ़ी, अपनी प्रतिक्रिया लिखी और फिर मेरी मित्र सूची में शामिल हुए । मैने पहले भी कहा है, कोई पुरुष इस पुस्तक को पसन्द करे तो मुझे अतिरिक्त खुशी होती है ,और वो भी कोई युवा  ,जिन्होंने इस तरह की समस्याओं को देख सुना नहीं होता ।पर किसी का संघर्ष समझने क लिए सिर्फ एक संवेदनशील मन होना चाहिए ।
 पुनः शुक्रिया.

"काँच के शामियाने "

कभी-कभी कुछ चीजें अचानक ही घट जाती हैं आप उनके लिए तैयार नहीं होते हैं पर उन्होंने होना होता है और वो होती हैं, मेरे लिए ऐसी ही एक घटना Rashmi Ravija जी के उपन्यास "कांच के शामियाने"को पढना है। कुछ ऐसी कहानियां होती हैं जो हमेशा के लिए अपनी छाप छोड़ जाती हैं एक शामियाना आपके जेहन में लगा जाती हैं।

 रश्मि जी ने बिहार की आंचलिक भाषा के साथ जो शिल्प रचा है वो बहुत सामान्य सी रोजमर्रा की जिंदगी है लेकिन उस जिंदगी को जीने के लिए जिस जिजीविषा की आवश्कता है उस संघर्ष को पूरा स्पेस देना इस उपन्यास को कमाल बनाता है।
 किसी भी उपन्यास की ताकत इस बारे में छुपी होती है कि वो कितनी सिटिंग में पूरा किया गया, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि बिना कोई सस्पेंस थ्रिलर हुए ये कथानक आप बिना खत्म किये हुए छोड़ नहीं पायेंगे जबकि उपन्यास का अंत आपको मालूम है लेकिन तब भी आप उन किरदारों की यात्रा को महसूस करेंगे।

इस उपन्यास की  कहानी हमारे समाज के बीच की ही है। इसमें वह सच है, जिससे आंखें चुराने की, उसे नकारने की कोशिश की जाती है। बहुत सी किताबें आपको जानकारी दे जाती हैं बहुत सी किताबें आपका मनोरंजन कर जाती हैं लेकिन कम ही किताबें ऐसी होती हैं जो आपको एक इंसान बनाने की ओर एक कदम आगे ले जाये।

#काँच_के_शामियाने

"काँच के शामियाने "पर विवेक रस्तोगी जी की टिप्पणी

"बहुत बहुत शुक्रिया Vivek Rastogi ji आपने एक बैठक में किताब ख़त्म कर ली और मेरे इस भ्रम को भी निरस्त कर दिया कि शायद पुरुषों  को यह किताब उतनी पसंद ना आये . आपकी प्रतिक्रिया बहुत मायने रखती है .

काँच के शामियाने"शुरू तो दो दिन पहले की थी, पर बहुत अधिक न पढ़ पाने से लय नहीं बन पायी, पर आज सुबह से फुरसत निकाल कर 3-4 घंटों में ही किताब का आनंद ले लिया, Rashmi जी ने जिस अंदाज में यह उपन्यास लिखा है, वह झकझोरने वाला है, क्योंकि कहीं न कहीं वाकई यह कितनी ही जिंदगियों का सच होगा, एक अनजाना सा सच, उपन्यास की शैली लेखिका की कहानियों की शैली में ही है, कि एक बार पढ़ने बैठे तो जब तक पूर्ण न कर लें, तब तक मन कहीं और लगता ही नहीं।

यही लेखक की लेखनी का चातुर्य है।

धन्यवाद एक बहुत ही अच्छा सामाजिक पहलू दिखाने के लिये, मैंने भी कई मोड़ कहानियों में सोचे थे, परंतु वैसा कुछ हुआ नहीं।

दस वर्षों के बाद,वंदना अवस्थी से पहली मुलाकात

"ये मेरी बहुत अच्छी दोस्त/अच्छे दोस्त हैं "कहते अब एक हिचक सी Bहोती है। समय का रुख कब बदल जाता है, और लोग अच्छे दोस्त से सिर्फ दोस्त,फिर परिचित और फिर अपरिचित तक की यात्रा कब पूरी कर लेते हैं, आभास भी नहीं हो पाता। फिर भी नज़र का बजरबट्टू लगाकर कहने का मन है, पिछले दस वर्षों से वंदना अवस्थी दुबे  से दोस्ती एक समरेखा पर चलती आ रही है, फिंगर्स क्रॉस्ड चलती भी रहेगी। और विडम्बना ये कि अब तक हम मिले नहीं थे। कुछ सुयोग ही नहीं जुट पाया। अचानक एक दिन मैसेज आया..."22 मई को मैं पटना पहुँच रही हूँ, मुलाकात हो पाएगी? "वंदना को अंदाज़ा था कि मई के अंतिम सप्ताह में मुंबई लौटती हूँ। और उसका अंदाज़ा बिल्कुल सही था।

वंदना अपनी दीदी -जीजाजी के नए घर के गृहप्रवेश समारोह में शामिल होने पटना आई हुई थी। और मैं गाँव से बरक्स पटना मुम्बई जाते हुए एक दिन के लिए पटना में रुकनेवाली थी।

24 को वंदना से मिलना तय हुआ। सुबह आठ बजे की गाड़ी बुक कर दी थी। ताकि दोपहर में वंदना से मिल लूँ और शाम को उषाकिरण दी, भावना,वीणा, नीलिमा दी से मुलाकात हो जाये। गाँव में यूँ भी बहुत जल्दी सुबह हो जाती है। मैं और माँ जल्दी से तैयार  हो गए। पर सबकुछ सोचे हुए तरीके से हो जाये फिर लिखने का मसाला कहाँ से मिले :D । समय निकलता जा रहा था,गाड़ी का अता -पता ही नहीं, ड्राइवर फोन ही ना उठाये। गाड़ी के मालिक को फोन किया तो उसने कहा, 'गाड़ी तो सुबह ही निकल गई है पर ड्राइवर फोन नहीं उठा रहा।'आखिर ग्यारह बजे के करीब ड्राइवर महाराज ने मेहरबानी की और बताया, "वैशाली में हमारा गाड़ी धर लिया है, पेपर सब ले लिया है।हमको आते हुए तीन- चार बज जाएंगे "लो जी अब तो पटना पहुँचते आठ बज जाते,किसी से भी मिलना नहीं हो पाता। :( ।खैर गाँव में आप मुश्किल में हो तो पूरा गाँव मदद करने को सक्रिय हो जाता है। पास में रहने वाले रंजन,अभिषेक ने कई फोन घुमाए...रंजन की कार सजी धजी हुई सुबह ही दूल्हा दुल्हन को लेकर लौटी थी।रात भर का जागा ड्राइवर सो रहा था। खैर दूसरे ड्राइवर का इंतज़ाम हुआ।कार की फूल पत्तियां साफ की गईं और हम 1 बजे पटना के लिए निकले। पटना की सखियों माफी🙏 हमें ये शाम वंदना के नाम करनी पड़ी 😊.

 मैं घर का गेट ढूंढ ही रही थी कि चेहरे पर हज़ार वाट की मुस्कान लिए, एक उजली सी दुबली-पतली काया नमूदार हुई। वंदना की दीदी ,जीजाजी ,उनकी दोनों बेटियाँ शैली और संज्ञा बड़े प्यार से मिलीं। हमेशा बिहार से बाहर रहने के बावजूद दोनों बेटियों ने बिहार के संस्कार के मुताबिक पाँव छूकर प्रणाम किया
  पढ़ाकू दस वर्षीय नाती ऋतज बार बार पूछ लेता, "चाय बनाऊँ ?😊 "।उसने दो दिन पहले ही चाय बनानी सीखी थी और दो बार बिल्कुल परफेक्ट चाय बनाकर पिलाई । बहुत ही आलीशान बड़ा सा घर है, उसकी एक दीवार पर गुणी बिटिया संज्ञा ने बहुत ही सुंदर म्यूरल बनाया है। ऋतज और वंदना ने भी पूरी करने में मदद की।(तस्वीर ज़ूम कर के देखें,जहाँ कोई गलती नज़र आये जरूर वंदना ने की होगी 😛 )

मैंने अनुमति लेकर झट तस्वीर ले ली ,स्कूल की दीवार पर ऐसा बना सकती हूँ (कहीं कुछ अच्छा देखूं तो स्कूल का ही ख्याल रहता है  :) )

एक मजे की बात हुई...वंदना जैसे ही मेरा परिचय देते हुए कुछ बताने लगती, दीदी कहतीं, 'हां पता है हमें...फोटोज़ भी देखे थे " :) दीदी-जीजाजी भी फेसबुक पर हैं और मेरी पोस्ट पढ़ते रहते हैं। आखिर वंदना ने खीझकर कह दिया,'लो भई , इनलोगों को तो सब पता है...कुछ बताने की जरूरत ही नहीं।"😀
हम और वंदना बातें करते रहे और अर्चना दी हमारी कैंडिड फोटोज़ खींचती रहीं। वंदना के मम्मी पापा से भी मिली। पापा सौम्य-स्नेहिल और मम्मी तो बिल्कुल गुड़िया सी हैं।प्यार से गले लगा लिया । उन्होंने तीन वर्ष पूर्व मेरा उपन्यास 'काँच के शामियाने 'पढ़ा था और उन्हें पूरी कथानक याद थी। मेरे लिए सुखद आश्चर्य था,वंदना की दोनों दीदियों ने भी मेरा उपन्यास पढ़ रखा था। (और काँच के शामियाने इतना ईर्ष्यालु है,चाहता है सिर्फ उसकी ही चर्चा हो , मैं कहानी संग्रह 'बन्द दरवाजों का शहर'दीदी के लिए लेकर आई थी पर उसने गाड़ी में ही छुड़वा दी :( )
मुझे एक पल को भी लगा ही नहीं, मैं किसी अनजान घर में आई हूँ या सबसे पहली बार मिल रही हूँ। जब आंटी से विदा लेने गई तो उन्होंने कब चुपके से दुपट्टे के कोने में रुपये बांध दिए,मुझे पता ही नहीं चला। पता चलने पर भी आंटी के आशीर्वाद को तो नत होकर ग्रहण करना ही था।मुझे और वंदना को तो दस वर्ष का कोटा पूरा करना था, हमारी गप्पें ही खत्म ना हों। बीच बीच में शर्बत,चाय,मिठाई,नमकीन की सप्लाई होती रही। संज्ञा ने कहा , "यहाँ पास में बहुत अच्छी चाट मिलती है, पार्सल मंगवाती हूँ।आपलोग ए. सी. में बैठकर आराम से खाइए।"पर हमारा पुराना प्यार जाग उठा था। कंकड़बाग में मेरे चाचा और मामा रहते थे। रिटायरमेंट के बाद पापा भी कुछ समय रहे थे। मेरा बहुत जाना-पहचाना इलाका था। वंदना भी गर्मी छुट्टियों में अक्सर अपनी दीदी के पास आया करती थी। कोने पर मशहूर शालीमार स्वीट्स की चाट और लस्सी की याद ही हमारे मुँह में पानी ला रहै था। और हम दोनों सबसे विदा ले चाट खाने चल दिये।

कॉलेज के दिनों की तरह हमने रिक्शा या ऑटो नहीं लिया कि पैदल चलते देर तक साथ रह पायेंगे 💝। सबकी अजीब निगाहों की परवाह ना करते हुए दुकान की फोटो खींची गई,वंदना ने बड़े पोज़ वोज़ दिए 😀 ।
पर शालीमार जाकर एक सबक मिला, 'पुरानी यादों के साथ कृपया कोई छेड़छाड़ ना करें । उन लम्हों को दुबारा जीने की कतई कोशिश ना करें। दिल के कोने में उनकी खूबसूरत याद संजो कर रखें और जब तब झांक कर आहें भर ले। वरना दिल इतनी जोर से टूटेगा कि वे यादें फुर्र कर उड़ जाएंगी।'

सबसे पहले तो चाट खाने की व्यवस्था ने ही निराश किया। पहले दुकान के अंदर ही टेबल लगे होते और आप शांति से चाट खा सकते थे। अब दुकान बहुत बड़ा हो गया है, ढेरों मिठाई-नमकीन-चॉकलेट सजे थे और टेबल बाहर लगी थी। सड़क की चिल्ल-पों सुनते ,गर्मी से बेहाल होते आप चाट खाइए। हमने पुराने प्रेम की खातिर वो भी मंजूर किया । पर दिल टूटना तो अभी बस शुरू हुआ था, काउंटर पर बैठे लड़के ने बताया अब लस्सी नहीं मिल्कशेक मिलता है (बढ़नी मारो,इस मिल्कशेक को...समझने वाले इसका अर्थ समझ जाएंगे :) )
चाट की शकल ही कुछ नहीं जंच रही थी और मुँह में रखते ही स्वाद ने रही सही कसर भी पूरी कर दी। कहीं नमक बहुत ज्यादा, कहीं मिर्च तेज.....दही भी खट्टी। बड़ी मुश्किल से दो चार चम्मच खा कर हमने पूरी प्लेट छोड़ दी।
 आइसक्रीम खा कर मुँह का स्वाद बदलने की सोची पर अब दूध के जले हम छाछ भी फूंक रहे थे। कोई भी जाना-पहचाना नाम नहीं दिखा तो ये इरादा भी मुल्तवी किया और एक छोटी बोतल माज़ा से संतोष किया।
तीन घण्टे गुजर गए थे पर महसूस हो रहा था,हमने तो कुछ बात ही नहीं की :) । खैर, मिलने की शुरुआत तो हुई....अब मिलते रहेंगे।









एक सफर : कॉर्पोरेट से किसानी तक

वो ऑरकुट का समय था, किसी बुक कम्युनिटी में Hemanshu Joshi से मुलाक़ात हुई थी ,किसी विषय पर बहस से शुरुआत हुई होगी,जिसमें हम दोनों ही प्रवीण हैं 😀. फिर तो सिलसिला चल निकला, हिमांशु मेरी पेंटिंग्स में मीन-मेख निकालता और मेरी सारी फ्रेंड्स उस से उलझ जातीं,.वो सबके सामने अकेले ही मोर्चा सम्भाले रहता. इन सबसे अलग भी हिमांशु के विषय में पता चला, वो दुबई में रहता है, आई.टी. प्रोफेशनल है. काफी जिंदादिल है. मैराथन में भाग लेता है. (11 फुल मैराथन और 24 हाफ मैराथन में भगा ले चुका है ) .अच्छा वक्ता है .Toastmasters international ( a public speaking forum )में नियमित भाग लेता है . एक दिन उसने यूँ ही कहा कि वो गाँव वापस आ जाना चाहता है. वहां आकर खेती करेगा . देर तक वो अपनी योजनाओं के विषय में बातें करता रहा. लेकिन मैं बहुत बेमन से सुन रही थी, मुझे पता था सब विदेशों में रहने वाले ऐसा ही कहते हैं, कोई नहीं लौटता. मैंने अपनी सहेलियों से कहा भी ,'आज बहुत पकाया हिमांशु ने ' Image may be NSFW.
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ये 2008-9 की बात थी. उसके बाद हिमांशु भी अपने कैरियर वगैरह में व्यस्त हो गया, मैं अपने लिखने-पढने में.

2016 में अचानक एक फोन आया .हिमांशु ने अपने अंदाज़ में कहा, 'अस्सलाम वालेकुम....मैं आपकी मुंबई में हूँ. ' 2015 के दिसम्बर में उसके पिता गम्भीर रूप से बीमार पड़े . हिमांशु सोचता रहा, 'माता-पिता हल्द्वानी में अकेले हैं , वृद्ध हैं, बीमार हैं .मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ....सिर्फ पैसे कमा रहा हूँ और खर्च कर रहा हूँ.' 2016 की फरवरी में उसने अपनी हाई-प्रोफाइल जॉब छोड़ दी और हमेशा के लिए हल्द्वानी आ गया. मैंने हिमांशु से आग्रह किया कि वो अब तक के अपने अनुभव लिख कर भेजे .ताकि इसे पढ़कर लोग प्रेरणा भी ले सकें और यह भी जानें कि कुछ युवा सिर्फ पैसों के पीछे नहीं भागते , परिवार-समाज को कुछ वापस देने की कोशिश भी करते हैं.
हिमांशु ने अंग्रेजी में लिख कर भेजा है ,जिसका मैंने हिंदी रूपांतरण किया है.

हिमांशु :


कृषि का मुझे कोई अनुभव नहीं था .पिता वैज्ञानिक , दोनों बहनें भी शिक्षा क्षेत्र से जुडी हुई .खेती बाड़ी से किसी का कोई रिश्ता नहीं. पर मैंने एक कोशिश करने की सोची. मेरे खेत, घने साल वृक्ष के जंगल के पास हैं , जिन्हें मैंने नाम दिया, ' Forest side farm' . मैंने ऐसे अनाज की खेती करने की सोची, जिन्हें बिलकुल प्राकृतिक तरीके से उगाया जाए. उनमें कोई केमिकल नहीं हो . जिसे मैं अपने परिवार और अपने आस-पास के लोगों को बिना किसी चिंता के दे सकूं और कोई अपराधबोध ना हो . Forest side farm'के पास दो कॉटेज भी बनाए हैं .जहां लेखक/कलाकार /प्रकृति से प्यार करने वाले या शहर के शोर शराबे से दूर लोग आकर कुछ दिन रह सकें.

दिसम्बर 2017 में पहली फसल लाही (एक तरह का सरसों ) की उगाई. फसल अच्छी हुई पर उन्हें बेचना मुश्किल. मैंने कोई भी केमिकल यूज़ नहीं किया था .इसलिए मेरी इच्छा थी कीमत ज्यादा मिले. लेकिन व्यापारियों को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता था. आखिरकार तीन महीने के इंतज़ार के बाद सामान्य मूल्य पर ही फसल बेचनी पड़ी. लाही की वजह से मसूर की फसल में देरी हुई और मसूर की बहुत कम पैदावार हुई ,निराशा तो हुई पर काम जारी रखना था .

मैंने उत्तराखंड में Avocado का सबसे बड़ा orchard लगाने का भी प्लान किया. avocado पांच साल में फल देने लगता है. साथ ही अमरूद के पेड़ भी लगाए जो दो साल में फल देते हैं. अक्टूबर 2017 में कर्नाटक जाकर avocado के180 पौधे लाए .पर अनुभवहीनता, पौधों के रखरखाव में कमी की वजह से सिर्फ दस पौधे बचे बाक़ी सब सूख गए. फिर भी आम,लीची,अमरूद, निम्बू का बाग़ लगाया है.

अगस्त 2018 में भट और कुलथी लगाई .जिसकी फसल एक क्विंटल से भी ज्यादा हुई. नवम्बर 2018 में गेंहू, चना, मसूर, राजमा,लगाया। फसल अच्छी हुई. मुझे ख़ुशी हुई कि जमीन ऊपजाऊ हो रही है.

मुझे कई लोगों से प्रेरणा मिली जिनमें प्रमुख हैं, ;गोपाल उप्रेती ( सेब उत्पादक ), डॉक्टर एस.एन. मौर्या (रिटायर्ड वाईस चांसलर ), डॉक्टर विशाल सोमवंशी (वैज्ञानिक, पूसा, दिल्ली ), डॉक्टर ए.के.सिंह (जॉइंट डायरेक्टर पंतनगर यूनिवर्सिटी ) दीपक मिश्रा ( एक डेयरी फार्मर ), पूर्वी सरकार ( बिजनेस कन्सल्टेंट ) और भी कई लोगों ने मानसिक सहारा दिया .

माँ मेरी एक बिग सपोर्ट है .पर वे थोड़ी नाखुश भी हैं कि मैंने अपनी इतनी अच्छी नौकरी छोड़ दी और अब तेज धूप में अपना बदन जला रहा हूँ . वे हेमशा चिंता करती हैं कि धूप में लगातार काम करने से मेरी त्वचा काली पडती जा रही है. Image may be NSFW.
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इतने दिनों की खेती में ये सीख मिली :
1. बाज़ार में केमिकल डले अनाज और प्राकृतिक रूप से उपजाए अनाज में कोई फर्क नहीं किया जाता. किसान को बहुत ही कम पैसे मिलते हैं.
2. एक ही फसल को बेचना कठिन होता है क्यूंकि उसकी मात्रा बहुत ज्यादा होती है और होलसेल मार्केट में पैसे बहुत कम मिलते हैं.
3. स्वयं उपयोग करने वाले लोग व्यक्तिगत तौर पर बहुत ज्यादा मात्रा में नहीं खरीदते.
4. खाद बहुत महंगा होता है और इसी वजह से फसल की कीमत बढ़ जाती है.
5.कृषि व्यापार नहीं हो सकता, यह जीने का तरीका है ( agriculture is not a business.It is a way of life )
6.छोटे किसान, मुहल्ले/शहर के लोग हमारे जैसे छीटे किसान की सहायता करते हैं क्यूंकि उन्हें साफ़ और केमिकल रहित अनाज चाहिए होता है.
7. यू ट्यूब मेरा अकेला गुरु है. मैं ज्यादातर चीज़ें वहीँ से सर्च करके सीखता हूँ. मेरे दोस्तों ने भी बहुत सपोर्ट किया है.

आगे के लिए सोचा है ---
अपनी जमीन की क्वालिटी प्राकृतिक रूप से बढ़ाऊंगा . अगर मिटटी में biomass अधिक होगा तो जमीन ज्यादा ऊपजाऊ होगी. ज्यादा पानी सोखेगी.इस तरह सिंचाई की जरूरत कम पड़ेगी.
अलग अलग फसल उगाऊंगा, यह जमीन और फसल दोनों के लिए अच्छा होगा. सीधा खरीदार तक पहुँच पाऊँगा. मंडी में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.
प्रकृति पर ज्यादा निर्भर करूंगा . खेती को ज्यादा जटिल नहीं बनाउंगा .
हमारे क्षेत्र के किसानों को कम से कम केमिकल के इस्तेमाल के लिए प्रेरित करूंगा.
हिमांशु को अपने कार्य में सफल होने की ढेरों शुभकामनाएं !!  







मनाली का मनु मंदिर

पहली बार कोई टी वी शो देखते हुए लगा कि अगर पलकें झपकाई या गर्दन घुमाई तो कुछ मिस हो जाएगा . एपिक चैनल पर सभ्यता की शुरुआत से सम्बन्धित कार्यक्रम में मनाली का  मनु मंदिर दिखा रहे थे और विशेषज्ञों द्वारा मंदिर से जुडी कथा भी बता रहे थे .

अभी अभी ये मंदिर देख कर लौटी हूँ  ,स्मृतियाँ भी ताजा थीं. एक कथा के अनुसार ,'ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। एक कल्प में 14 मनु हो जाते हैं। एक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं। वर्तमान में वैवस्वत मनु (7वें मनु) हैं। वैवस्वत मनु एक दिन दक्षिण की एक नदी तृप्ति धारा में स्नान कर रहे थे तो एक छोटी मछली ,उनके हाथों में आ गई . वे मछली को नदी में छोड़ने लगे तो मछली ने कहा ,'मुझे बड़ी मछली खा जायेगी . आप मुझे अपने घर ले चलिए 'मनु ने मछली को घर में लाकर एक घड़े में डाल दिया . मछली बड़ी होने लगी तो उसे तालाब में और फिर समुद्र में डाल दिया .मछली ने कहा कि शीघ्र ही जल प्रलय आने वाला है ,आप एक नाव में सृष्टि के बीज लेकर बैठ जाइएगा .मैं नाव को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दूंगी . प्रलय आने पर मनु सप्तऋषियों को और सृष्टि के बीज लेकर नाव में बैठ गए और मछली ने हिमालय की  तरफ एक ऊँचे स्थान पर नाव को लेजाकर 'ह्म्प्ता पर्वत'से बांध दिया . प्रलय शांत होने पर सप्तऋषियों ने यज्ञ कर एक नारी का निर्माण किया ,जिसे श्रद्धा कहा गया .और मनु एवं श्रद्धा ने मानव सन्तति को आगे बढ़ाया . सप्तऋषियों  ने सृष्टि के बीज से सृष्टि की रचना की.
 मनाली शहर का नाम मनु + आलय = मनुआलय का ही अपभ्रंश है .

वहां, महाराष्ट्र के ही कुछ टूरिस्ट मिले उसमे से एक अंकल जी मंदिर के रखरखाव से बहुत नाराज़ थे .पुजारी से कह रहे थे कि वे लोग सिर्फ पैसे लेते हैं, पीतल की मूर्तियों को चमकाते नहीं .सारी मूर्तियाँ काली पड़ गई हैं . मूर्तियों पर  प्लास्टिक के फूल की माला चढ़ाई हुई थी ,वह भी उन्हें नागवार गुजर रहा था , बोल रहे थे ,"एक ताजे फूल की माला तो चढ़ा ही  सकते हैं आपलोग ,इतने पैसे मिलते हैं आपलोगों को '

आज की अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करती पीढ़ी Adam and Eve को ज्यादा जानती है . उनका प्रश्न था , "हम मनु की संतान हैं ,ऐसा कहा जाता है . मनु और श्रद्धा की सन्तान है ऐसा क्यूँ नहीं कहा जाता ? श्रद्धा का नाम Eve की  तरह बराबरी में क्यूँ नहीं लिया जाता ?"
अब इसका उत्तर तो मेरे पास  नहीं .
मंदिर के अंदर चित्र खींचने की मनाही थी .हमने सिर्फ बाहर से ही ली पर नेट पर अंदर की तस्वीरें भी मौजूद हैं .
मनु मंदिर ,वशिष्ठ मंदिर और हिडिम्बा मंदिर की कुछ तस्वीरें .





फिल्म सुपर थर्टी : अदम्य जीवट,साहस,लगन की कहानी

बच्चों की गर्मी छुट्टियों में पटना जाती थी, उन्हीं दिनों IIT का रिजल्ट आता था. फ्रंट पेज पर सुपर थर्टी के बच्चों का रिजल्ट होता और सब की जुबान पर इसी की चर्चा होती थी. मुझे भी डिटेल जानने की इच्छा हुई. कुछ डॉक्यूमेंट्रीज़ देखे .एक दृश्य, हमेशा के लिए आँखों के समक्ष ठहर गया, साधारण से कपड़ों में दो बच्चे एक मोटी सी किताब खोले, उसमें से गणित के सवाल बना रहे हैं. उनके बीच एक कटोरी में भुने चने रखे हैं, बीच बीच में दो-चार दाने मुंह में डाल लेते हैं. अपने बच्चों के पीछे उनकी पसंद की चीज़ें लेकर मनुहार करती, घूमती माँ के लिए ये देखना बहुत कष्टकर था. मैंने ब्लॉग पर भी विस्तार से एक पोस्ट लिखी थी. कुछ लोगों ने मुझे कुछ लिंक मेल किये कि “ये खबरें पढ़िए , सुपर थर्टी के बारे में सबकुछ सच नहीं है. उसके संचालक आनन्द कुमार एक और कोचिंग इंस्टिट्यूट चलाते हैं और उसके पैसे से सुपर थर्टी के बच्चों को पढाते हैं.अपनी दूसरी कोचिंग क्लास के उत्तीर्ण बच्चों को भी सुपर थर्टी के क्लास से उत्तीर्ण बता देते हैं.” ऐसा अगर वे करते भी हो तब भी इतने सारे गरीब बच्चों को मुफ्त भोजन-आवास के साथ शिक्षा भी मुहैया कराना कम बड़ी बात नहीं. अगर सुपर थर्टी के किसी बच्चे ने IIT की परीक्षा नहीं भी उत्तीर्ण की, कोई दूसरा कम्पीटीशन पास किया होगा. उसमें पढने के प्रति रूचि तो जगाई क्यूंकि गरीबों के पास शिक्षा छोड़कर ,अपनी किस्मत संवारने का कोई दूसरा साधन नहीं है.

फिल्म की घोषणा होते ही उसके रिलीज़ होने की प्रतीक्षा शुरू हो गई. बहुत पहले देख भी ली थी पर अनेकानेक कारणों से जल्दी कुछ लिख नहीं पाई. ऋतिक रौशन को आनन्द कुमार के रोल में देखने के प्रति मैं भी आशंकित थी. पर फिल्म देखते हुए उनकी कदकाठी, रूपरंग सब घुल मिल जाते हैं. बिहारी एक्सेंट भी नहीं है लेकिन फर्स्ट हाफ में कहानी इतनी बाँध कर रखने वाली है कि अलग से ध्यान नहीं जाता . कैम्ब्रिज में एडमिशन मिल जाने के बाद भी,पैसे की कमी की वजह से आनन्द कुमार इंग्लैण्ड नहीं जा पाते .पैसों के इंतजाम के लिए पिता के साथ दर दर भटकना, दर्शकों की आँखें नम कर जाता है. आनन्द कुमार के किसी इंटरव्यू में भी एक नेता की कही बात सुनी थी. इसे फिल्म में हू ब हू लिया गया है. गोल्ड मेडलिस्ट आनन्द कुमार जब नेता जी से कहते हैं, “आपने गोल्ड मेडल देते हुए कहा था , जब कभी जरूरत हो तो मेरे पास मदद के लिए आ जाना “. पंकज त्रिपाठी बिलकुल नेताओं वाले अंदाज में कहते हैं, “हाँ हाँ मैंने आपको जरूर बुलाया होगा. मैं सब युवा लोगों को बुलाता हूँ. “ फिर जब आनन्द कुमार हिम्मत कर कहते हैं, “मुझे इंग्लैण्ड जाना है ,पैसे की जरूरत है “ नेता जी बोलते हैं...” जाओ...जरूर जाओ...इंग्लैण्ड ,अमेरिका, जर्मनी, चीन कहीं भी जाओ...पर पैसे के फेर में मत पड़ो...पैसा बहुत बुरी चीज है. और विदेश जाकर अपने देश की मिटटी को मत भूलना. ये मिटटी तुम्हारी माँ है...आदि आदि “ नेताओं के वही रते रटाये जुमले हैं. प्रसंग कोई भी हो, समस्या कोई भी हो उन्हें वही जुमले बोलने हैं.

आनन्द कुमार विदेश नहीं जा पाते. उनके पिता की मृत्यु हो जाती है. माँ पापड़ बेलने लगती है और आनन्द कुमार साइकिल पर पापड़ बेच कर घर का खर्च चलाते हैं. उन्हें एक कोचिंग क्लास में पढ़ाने का ऑफर मिलता है .वे पढाने लगते हैं, घर के हालात सुधरने लगते हैं. पर जब एक बच्चे को पैसे की कमी की वजह से उस कोचिंग क्लास में एडमिशन नहीं मिलता तो आनन्द कुमार को अपना समय याद आने लगता है.

वे गरीब बच्चों को मुफ्त में कोचिंग देने का फैसला लेते हैं. उन गरीब बच्चों को जिनके पास पढने का कोई साधन नहीं है, पर गणित में रूचि है ,अपने पास रख कर दोनों समय का खाना खिला कर IIT की तैयारी करवाते हैं. रोजमर्रा के जीवन के उदाहरण देकर मैथ्स -फिजिक्स-केमिस्ट्री इस तरह समझाते हैं कि इन विषयों में बच्चों की रूचि जागती है, खौफ नहीं होता. यह कहकर उनमें विश्वास भरते हैं कि "अब राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा, जो हकदार है वही राजा बनेगा ।"
इस मुहिम में तमाम अडचनें आती हैं....पैसे की कमी, बच्चों की जरूरतें, दूसरी कोचिंग क्लास चलाने वालों के लगातार हमले. पर आनन्द कुमार की माँ, भाई, बच्चे और कुछ सच्चे दोस्त हमेशा उनके साथ खड़े रहते हैं. माँ अपनी देखरेख में बच्चों के लिए खाना बनवाती हैं.

फिल्म में माँ और पिता के बीच की छोटी-मोटी नोंक झोंक बहुत प्यारी लगती है. अमूमन इस उम्र में और उस वर्ग में पति-पत्नी में आपसी संवाद ही बहुत कम होते हैं. पर गरीबी से आक्रांत परिवार में इन दृश्यों को डालकर निर्देशक ने फिल्म की बोझिलता कम करने की कोशिश की है. 

फिल्म के प्रति दर्शकों को आकृष्ट करने के लिए फिल्म में बहुत सारा बॉलीवुड मसाला भी डाला गया है. एक छोटा सा प्रेम प्रसंग भी है. जो नकली नहीं लगता पर नब्बे के दशक में नायिका आजकल के चलन वाले अनारकली सूट और बड़े बड़े इयररिंग्स में थोड़ी अलग थलग दिखती है. ( नेता जी भी जनता दरबार में घर से एलोवेरा जूस मंगवा कर पीते हैं, जिसका १९९२ में प्रचलन नहीं था पर शायद इसे क्रिएटिव लिबर्टी कहते हैं जो जरूरी हो जाता है पर हमें तो खटक जाता है Image may be NSFW.
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सेकेण्ड हाफ में फिल्म थोड़ी बनावटी लगने लगती है. अंग्रेजी स्कूल में पढने वाले छात्रों के साथ सुपर थर्टी के बच्चों के घुलने मिलने के लिए जो सिचुएशन तैयार की गई है, वो गले नहीं उतरती. वैसे ही आनंद कुमार को गोली लगने पर जब दूसरे कोचिंग क्लास वाले उन्हें जान से मारने के लिए अस्पताल पर हमला करते हैं और बच्चे विज्ञान के प्रयोगों से जिस तरह उनका सामना कर उन्हें हराते हैं, वो भी एक बच्चों के फिल्म के लिए तो बहुत प्रेरणादायी है पर एक गम्भीर फिल्म में नहीं जमा. ये चीज़ें और भी कई तरह से दिखाई जा सकती थीं....पर इस अत्यधिक ड्रामे ने फिल्म को कमजोर कर दिया .

अक्सर बायोपिक में अंत में जिनपर फिल्म बनाई गई है ,उन्हें भी परदे पर अलग से दिखाते हैं. फिल्म के अंत में इंतज़ार ही कर रही थी पर आधे स्क्रीन पर ऋतिक रौशन और आधे पे आनन्द कुमार की झलक भर दिखाई देती है.वो भी कुछ सेकेंड्स के लिए . मुझे लगा था, सुपर थर्टी से पास हुए कुछ बच्चों के भी चेहरे और उनके दो शब्द सुनने को मिलेंगे ,पर अनावश्यक ड्रामे में ही फिल्म की लम्बाई इतनी बढ़ गई कि इन सबकी गुंजाइश ही नहीं रही .( पर भला हो यू ट्यूब का, वहाँ सब मौजूद है 😊 )

फिर भी एक साधारण से व्यक्ति ने जिस जीवट, साहस और लगन से सैकड़ों गरीबों की किस्मत बदल दी और कितनों की प्रेरणा बने. उनकी कहानी देखने योग्य है. कई राज्यों में इसे करमुक्त करके सरकार ने सराहनीय कार्य किया है. स्कूल के बच्चों को भी जरूर दिखाई जानी चाहिए.

फिल्म मिशन मंगल ; एक समीक्षा


मंगल मिशन 'फिल्म पर ज्यादातर नकारात्मक  प्रक्रियाएं मिलीं. कुछ ने तो कहा कि फ्री में टोरेंट पर बढ़िया प्रिंट मिले तब भी न देखो.  पर मैं तो कभी किसी की सुनती नहीं, इसलिए थियेटर में देखने चली गई. पर फिल्म देखने के बाद आभास हो गया कि वे लोग ऐसा क्यूँ कह रहे थे. जिन्हें विषय पर केन्द्रित, तकनीकी रूप से उन्नत, अंग्रेजी फ़िल्में देखने की आदत होगी, उन्हें यह फिल्म बहुत निराश करेगी बल्कि एक मजाक ही लगेगी. लेकिन आमजन जो ज्यादातर मनोरंजन के लिए फ़िल्में देखते हैं, उनके लिए यह एक जरूरी फिल्म है. फिल्म को मनोरंजक बनाते हुए जरूरी जानकारी भी देने की कोशिश की गई है. ये अलग बात है कि फिल्म में बॉलीवुड मसाला डालने के चक्कर मेंसब घालमेल हो गया है और इसी वजह से सिनेमा के गम्भीर दर्शक चिढ गए हैं. लेकिन फिर भी लोगों तक सरल भाषा में ‘मंगल ग्रह अभियान’ की मोटी मोटी बातें पहुँचाने की कोशिश की गई है.

मंगलयान की सफलता पर हमसबने उस मिशन में शामिल महिलाओं की तस्वीरें लगाई थीं और गौरवान्वित भी हुए थे .यह पूरी फिल्म मंगल मिशन को सफल बनाने के उनके संघर्ष,लगन, जुनून के इर्द गिर्द बुनी गई है. 2010 में जब राकेश धवन( अक्षय कुमार) के नेतृत्व में ISROकी एक टीम रॉकेट लौंच करने में असफल हो जाती हैं तो उन्हें सजा के तौर पर मंगल अभियान की तैयारी के लिए भेज दिया जाता है. जिसके लिए न कोई स्पष्ट योजना है,ना बजट और ना ही अनुभवी वैज्ञानिकों की टीम उन्हें मिलती है. वैज्ञानिक तारा (विद्या बालन ) जो उस असफलता के लिए खुद को दोषी मानती हैं,राकेश धवन का पूरा साथ देती हैं. उनकी टीम में चार और महिलाएं और दो पुरुष शामिल होते हैं . सब मिलकर रोजमर्रा के जीवन की छोटी छोटी घटनाओं से प्रेरणा लेकर अभियान को सफल बनाने में जुट जाते हैं. पैसे की अतिशय कमी की वजह से खर्च कम करने के लिए कई तरह के जुगाड़ लगाए जाते हैं.(जिसमें भारतीय माहिर हैं 😊 ) राकेश धवन बजट की बात पर १९६३ में पहले रॉकेट प्रक्षेपण का उदाहरण देते हैं,तब भी पैसे इतने कम थे कि रॉकेट के अलग अलग पार्ट,साइकिल और बैलगाड़ी पर ढो कर ले जाए गए थे . काम करने का जुनून हो तो रास्ते खुद ब खुद निकलते चले आते हैं. कई अडचनों को पार करते हुए एक हॉलीवुड फिल्म की बजट से भी कम बजट में भारत, मंगल ग्रह के ऑर्बिट में प्रथम प्रयास में ही सफलतापूर्वक सेटेलाइट भेजने वाला,पहला देश बन जाता है. ये सारी तकनीकी बातें भी बहुत सरलता से दर्शकों तक पहुंच जाती हैं.

फिल्म ‘मंगल अभियानपर केन्द्रित है पर निर्माता-निर्देशक की रूचि फिल्म में इस अभियान से इतर वैज्ञानिकों की निजी जिंदगी दिखाने की है जो पूरी तरह उनकी कल्पना पर आधारित है. दर्शकों को बांधे रखने के लिए कोई मसाला छोड़ा नहीं गया,सास-बहू की नोंक-झोंक,घर-बाहर एक साथ सम्भालती सुपर वूमन,तलाक के बाद अकेली मुस्लिम लडकी को घर मिलने की परेशानी,एक आज़ाद-ख्याल लडकी का सिगरेट फूंकना और बॉयफ्रेंड बदलना,एक कुंवारे चम्पू लडके का बाबाओं के चक्कर लगाना,विदेश में बसे बेटे द्वारा बूढ़े माँ-बाप की उपेक्षा, एक आर्मी ऑफिसर का घायल होना, सब शामिल है. देशभक्ति का तड़का भी भरपूर है.  पर पता नहीं एकाध जगह फूहड़ हास्य भी शामिल करने की क्या मजबूरी थी.

इन सबके बावजूद यह फिल्म देखी जानी चाहिए. जिन लोगों ने विस्तार से मंगलयान के अभियान के विषय में नहीं पढ़ा,शायद उनकी रूचि जागेगी . फिल्म में दी गई थोड़ी सी जानकारी से उनका मन नहीं भरेगा वे सब कुछ जानना चाहेंगे. क्या पता कोई बच्चा वैज्ञानिक बनने का सपना भी देखने लगे और पढाई में मन लगाए ( हो सकता है ये उम्मीद कुछ ज्यादा लगे पर उम्मीद ही तो है ) .
फिल्म में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका विद्या बालन की है जो उन्होंने बखूबी निभाई है. अक्षय कुमार 
कभी कभी कुछ ज्यादा ही ड्रामेटिक लगते हैं. शरमन जोशी,थ्री इडियट्स के बाद से ही चम्पू लडके के रोल में टाइप्ड हो गए हैं पर अभिनय सहज ही था . सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया.
गीत-संगीत की गुंजाइश इस फिल्म में नहीं थी फिर भी डिस्को का एक लचर सा निरर्थक  दृश्य रचा अगया है. छायांकन बहुत सुंदर है.

मंगल अभियान की सफलता का सारा श्रेय इसरो के वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम को है. पर फिल्म तो चैरिटी या शौक के लिए नहीं बनाई गई है. वैज्ञानिकों के संघर्ष पर फिल्म बनाकर पैसे कमाने हैं,शायद कर मुक्त करवाने की लालसा में अंत में मोदी जी का भाषण भी शामिल किया गया है. या फिर पार्टी विशेष के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखानी हो पर इस फिल्म में बहुत असम्बद्ध सा लगता है.

फ़िल्म 'छपाक' : तेज़ाब बोतल से पहले दिमाग में आता है

मैंने एसिड सर्वाइवर्स से सम्बन्धित कुछ आलेख लिखे हैं. जिसे Alok Dixit ji    ने शेयर भी किया था . बहुत पहले से लक्ष्मी अग्रवाल , अंशु राजपूत से जुडी हुई हूँ. इनका हौसला, जिंदगी जीने का ज़ज्बा हमेशा ही प्रेरणा देते हैं. जब लक्ष्मी अग्रवाल के जीवन पर 'छपाक'फिल्म बन रही थी,तभी से इसके रिलीज़ होने का इंतज़ार शुरू हो गया था . और संयोग ऐसे जुटे कि जल्दी से इसे देख भी लिया. इस तरह की फ़िल्में सबको जरूर देखनी चाहिए ताकि आमजन सोचने पर मजबूर हो जाए ,ये कैसे वहशी समाज में हम रह रहे हैं जहाँ एक लडकी के 'ना'की ऐसी सजा उसे दी जाती है.

'छपाक'फिल्म का विषय इतना गम्भीर होते हुए भी यह फिल्म बिलकुल भी बोझिल नहीं है. एसिड से बिगड़े हुए चेहरे के साथ एक लड़की कैसे अपना दर्द भुलाकर  आम सा जीवन जीने की ज़द्दोज़हद में लगी होती है, पूरी फिल्म इसी पर आधारित है. एसिड से जलते शरीर की दर्द भरी चीखें आपके अंतस को झकझोर देती हैं. पर मालती सिर्फ अपनी किस्मत पर रोते बिसूरते हुए नहीं बैठती बल्कि आगे बढ़कर अपने जीवन की बागडोर अपने हाथों में लेती है, कोर्ट में पेश होकर अपराधी को सजा भी दिलाती है और एसिड की खुलेआम बिक्री पर रोक लगाने के लिए PIL भी दाखिल करती है. मालती खुशनसीब है कि उसकी मालकिन उसके इलाज का खर्च उठाती हैं, वकील उसका साथ देती हैं, उसकी हिम्मत बढाती हैं .पर सभी लडकियां इतनी किस्मतवाली नहीं हैं. फिल्म में ही एक लडकी मालती से कहती है, "दीदी आपकी सात सर्जरी हुई तब आपको ऐसा चेहरा मिला. हमारी दूसरी सर्जरी के ही पैसे नहीं जुट रहे."सभी एसिड सर्वाइवर्स के इलाज का खर्च सरकार को उठाना चाहिए ,आखिर अपने नागरिकों को सुरक्षा देने की जिम्मेवारी सरकार की है. एसिड की बिक्री पर बैन लगाने के बावजूद भी यह कैसे सहज उपलब्ध हो जा रहा है और मासूमों की जिंदगी तबाह किये जा रहा है ??

एसिड एक लडकी पर फेंका जाता है पर उसकी झुलसन में पूरा परिवार झुलस जाता है. एक सामान्य जिंदगी जीते, हंसते-खेलते परिवार की सारी जिंदगी उलट पुलट जाती है. इस गम से उबरने में मालती के पिता शराब में डूब जाते हैं. भाई उपेक्षित हो जाता है, समाज के उपहास भरे तानों से डिप्रेशन में जाकर गम्भीर बीमारी लगा बैठता है. फिर भी इन सबसे अगर मालती टूट जाती तो ये उस अपराधी की जीत होती . अपने ऊपर किये किसी भी जुल्म का जबाब यही है कि घुटने ना टेके जाएं, जुल्म के बावजूद अपना सामान्य जीवन जारी रखा जाए, हंसना-बोलना-खुश रहना ना छोड़ा जाए तो ये उस आतातायी की सबसे बड़ी हार होती है.

फिल्म में बड़े subtle तरीके से दिखाया गया है कि इनलोगों को सिर्फ कोरी सहानुभूति की नहीं बल्कि आर्थिक संबल की ज्यादा आवश्यकता है. मालती अपना इंटरव्यू लेने वालों से भी पूछ लेती है, 'उनके यहाँ कोई नौकरी है ? ' NGO के संचालक से भी पहला सवाल यही करती है, 'सैलरी कितनी मिलेगी ?". जागरूकता फैलाना,विरोध करना,  न्याय के लिए आवाज़ उठाना सब अपनी जगह सही है पर अपना और अपने परिवार का पेट पालने का प्रश्न पहला होता है.
लडकियों का तन मन झुलस जाता है पर नारी सुलभ इच्छाएं तो यथावत रहती हैं. जब मालती डॉक्टर से भोलेपन से पूछती है, 'मेरा कान बना सकते है ?' (उसे झुमके पहनने का बहुत शौक है ) तो दर्शकों के भीतर कुछ दरक जाता है. फिल्म में एक जगह मालती दृढ़ता से कहती है, "उसने सिर्फ मेरा तन बिगाड़ा है .मेरा मन वैसा अहि है.उसपर कोई असर नहीं हो सका "

फिल्म के अंत में आंकड़े पढ़कर एक सदमा लगता है .2013 के बनिस्पत 2017 में एसिड फेंकने की घटना में दुगुनी बढ़ोत्तरी हो गई है. फिल्म में आखिरी दर्ज घटना 7 दिसम्बर 2019 की है . Anshu Rajput ji के स्टेटस में देखा ..कल यानी 11 जनवरी 2020 को ही लखनऊ में तेरह साल की एक बच्ची के ऊपर तेज़ाब फेंका गया है. लडकियाँ आगे बढ़ रही हैं, घर से निकल रही हैं, सर झुकाकर किसी का भी प्रेम निवेदन स्वीकार नहीं कर रहीं, ना कहना सीख रहीं हैं और उसकी ऐसी भीषण सजा भुगत रही हैं. मुंबई प्लेटफार्म पर प्रियंका राठौर के साथ हुए हादसे का पूरा अपडेट रोज पढ़ती थी. नेवी ज्वाइन करने के लिए मुंबई आने वाली प्रियंका के ऊपर उसके पडोसी लड़के ने सिर्फ इसलिए एसिड फेंक दिया क्यूंकि वो नकारा और आवारा था और उसके घरवाले उसे प्रियंका का उदाहरण देते थे . टेढ़े मेढ़े अक्षरों में लिखी  प्रियंका की वो चिट्ठी अखबार में भी पढ़ी थी, जहां वो अपने बिगड़े हुए चेहरे के साथ भी सिर्फ ज़िंदा रहना चाहती थी ताकि पैसे कमा कर अपने पिता की मदद कर सके. पर वो जान गंवा बैठी.

फिल्म का एक डायलॉग है , "किसी को नेस्तनाबूद कर देने का, तबाह कर डालने का ,बर्बाद कर देने का ख्याल पहले दिमाग में आता  है तब उसके बाद एसिड की बोतल हाथों में आती है "इसलिए दिमाग का इलाज़ ज्यादा जरूरी है. ऊँची जाति वाले निम्न जाति की लडकियों को सबक सिखाने के लिए उनपर एसिड फेंक देते हैं. और ऐसे जघन्य कृत्य में कोई जेंडर विभेद नहीं है. मालती के ऊपर एसिड एक लडकी ही फेंकती है. 'लक्ष्मी अग्रवाल'के एक इंटरव्यू में भी सुना था कि उन्हें लड़कियों से ही ज्यादा ताने मिलते हैं.पूरे समाज की मानसिकता ही विकृत हो चली है.

मेघना गुलज़ार ने बहुत ही संवेदनशील फिल्म बनाई है .दीपिका पादुकोण ने इसे मेघना गुलज़ार के साथ प्रोड्यूस भी किया है. दीपिका ने जिस तरह  पूरी फिल्म में अपने चेहरे पर एसिड विक्टिम का मेकअप किये रखा,उसकी तारीफ़ के लिए शब्द नहीं हैं. जनता से जो प्यार उन्हें मिला है, ऐसी फिल्मों में काम कर वे सूद समेत वापस कर रही हैं (और बदले में और प्यार पा रहीं हैं ) .मालती के संघर्ष में मितभाषी साथी के रूप में विक्रांत मैसी ने बहुत अच्छा काम किया है. सभी सह कलाकार अपने रोल को जीते हुए प्रतीत होते हैं. पूरी फिल्म में टुकड़ों में बजता गीत बहुत कर्णप्रिय है.

फ़िल्म पंगा : अधूरे सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद

हमारे देश क्या पूरे संसार में ही कुछ वर्ष पहले तक लड़के/लड़कियों के काम सुनिश्चित थे।उन्हें शादी कर घर और बच्चे की देखभाल करनी है और लड़के को नौकरी कर पैसे कमाना है।धीरे धीरे बदलाव आए लड़कियाँ पढ़ने लगीं, नौकरी करने लगीं लेकिन घर और बच्चे की जिम्मेवारी आज भी उनकी ही है।(अपवाद छोड़कर)

पर जब लड़कियाँ पढ़ रही होती हैं,बढ़ रही होती हैं,उनके भी कई शौक होते हैं। वे खेलती हैं, पेंटिंग करती हैं, गाने गाती हैं,लिखती हैं पर फिर वही शादी-बच्चे और सबकुछ बैकसीट पर। पर अगर कोई शादी-बच्चे के बाद भी वापस अपनी कला,अपने खेल में वापस लौटना चाहे तो उसे उसके पूरे परिवार,दोस्त, सहकर्मी सबके सहयोग की जरूरत होती है।खुद पर भी बहुत मेहनत करनी होती  है।समय आगे निकल गया होता है और हर क्षेत्र में बहुत बदलाव आ गए होते हैं। उस लेवल तक खुद को लाने के लिए कड़े परिश्रम की आवश्यकता होती है।

फ़िल्म 'पंगा'एक कबड्डी खिलाड़ी की इसी यात्रा और संघर्ष की कहानी है। पति और समाज ने खेल में उसकी सफलता देखी है ।पर उसके बेटे ने सिर्फ उसका 'मम्मी रूप'ही देखा है। वो एक कड़ी बात कह देता है, 'रेलवे में टिकट ही तो काटती हो।'हालांकि बेटे के मुँह से ये ताना अच्छा नहीं लगता पर आजकल बच्चे ऐसा बोलते हैं और कार्टून देखकर तो उनकी भाषा और लहजा बिल्कुल ही बदल गया है।पर जब बच्चे को पता चलता है कि उसकी माँ राष्ट्रीय स्तर की कबड्डी खिलाड़ी रह चुकी है तो वह उनके कम बैक के लिए बहुत जोर देता है। सेरेना विलयम्स का उदाहरण भी देता है पर एक बात समझ नहीं आई। फ़िल्म के लेखक/निर्देशक ने मैरी कॉम का उदाहरण क्यों नहीं दिया। पश्चिम की तरफ देखने की आदत हमारी जाएगी नहीं 😏

जया निगम के कम बैक की मेहनत बहुत तफ़सील से दिखाई गई है।अक्सर किसी खेल पर बनी फिल्म में खेल कम होता है,इमोशन और ड्रामे ज्यादा होते हैं।पर इसमें बहुत सारा कबड्डी भी है। कंगना की ट्रेनिंग, अड़चनें, असफलता और फिर सफलता सब देखने को मिलती है।
फ़िल्म में एक रोचक दृश्य है। किसी की दमित इच्छाएं, अवचेतन में किसी भी रूप में निकल सकती हैं। सबलोग फिल्म देखने जाएंगे नहीं, इसलिए बता देती हूँ ,जया नींद में लात चलाती हैं। तो नए-नवेले पतियों, पत्नी की इच्छा रोकने की कोशिश मत करना।और लड़कियों तुम्हें भो आइडियाज मिल गए हैं 😀

पति के रूप में जस्सी गिल का काम बहुत अच्छा है।फ़िल्म देखकर ही सही ऐसे संवेदनशील,समर्पित, हेल्पफुल,प्यार करने वाले पतियों की संख्या में इज़ाफ़ा हो तो बेहतर :)  नीना गुप्ता माँ के छोटे से रोल में हर दृश्य में अपनी छाप छोड़ जाती हैं। सिनेमा अब निरूपा राय वाली माँ के इमेज से बहुत आगे निकल गया है। माँ अपनी ज़िंदगी भी जीती है, बेटी से असहमति भी दिखाती है और समय पड़ने पर उसकी सहायता भी करती है।हालांकि बच्चे के मुँह से नानी का मजाक कुछ अच्छा नहीं लगता। हर बच्चा अपनी नानी के बहुत करीब होता है (जैसा मैंने अब तक देखा है)।
ऋचा चड्ढा ने बिंदास दोस्त की भूमिका बहुत अच्छी निभाई है । सिर्फ लड़के ही नहीं, अब लड़कियाँ भी अपना सबकुछ छोड़कर अपनी सहेली की सहायता के लिए आ सकती हैं।

फ़िल्म क्वीन से ही 'कंगना रनौत'ने साबित कर दिया है कि वे बड़ी कुशलता से पूरी फिल्म अपने कंधे पर ढो सकती हैं। माँ-खिलाड़ी हर रोल में उनका अभिनय बहुत सहज है। अब उनकी फैन फॉलोइंग भी जबरदस्त हो गई है। मेरी एक फ्रेंड जिसे फिल्मों में खास रुचि नहीं है, उसने जैसे ही सुना कि नायिका कंगना रानौत है, ना उसने फ़िल्म का नाम पूछा ना विषय और फ़िल्म देखने को तैयार हो गई।

'निल बटे सन्नाटा'के बाद निर्देशक 'अश्विनी अय्यर तिवारी'की फ़िल्म 'पंगा'से पता चलता है,उनमें  छोटे छोटे क्षण पकड़ने की अद्भुत क्षमता है। फ़िल्म में जरा भी बोझिलता नहीं है। पूरी फिल्म में एक खुशनुमा अहसास छाया रहता है। उनसे आगे भी ऐसी फिल्मों की उम्मीद बनी रहती है जहाँ स्त्री कभी भी आस नहीं छोड़ती और डिप्रेशन में नहीं जाती बल्कि हर हाल में ज़िन्दगी जीना नहीं छोड़ती।

ये फ़िल्म महिलाओं से ज्यादा पुरुषों को देखनी चाहिए। महिलाएं तो अपनी इच्छाएं/सपने जानती ही हैं। पुरुषों को प्रेरणा लेनी चाहिए कि किस तरह वे उनके सपने पूरे करने में सहायक हो सकते हैं ।

फील्ड मार्शल मानेकशॉ

 


१९४२ में द्वीतीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया था.पूरे विश्व में तबाही मची हुई थी. हर देश युद्ध से किसी ना किसी प्रकार प्रभावितथा. उस वक्त भारत आज़ाद नहीं हुआ था और भारतीय सेना, अंग्रेजों कीमदद कर रही थी. बर्मा में भारतीय सेना तैनात थी और जापानियों के दांत खट्टे कर रहीथी. बर्मा के एक बहुत ही महत्वपूर्ण चौकी ‘पगोडा हिल’ पर जापानियों ने कब्जा कर लिया था. एक नौजवान कैप्टन ‘सैम ’मानेकशॉ'अपनी बटालियन ‘राइफल कंपनी’ की अगुवाई करतेहुए ‘पगोडा हिल’ की तरफ बढ़ रहेथे. हिल के ऊपर से जापानी अंधाधुंध गोलिया दाग रहे थे . मानेकशा ने अपने सैनिकोंको चट्टानों की आड़ लेते हुए ऊपर की तरफ गोलियां चलाते हुए आगे बढने का आदेश दिया.खुद भी वे सबसे आगे बहादुरी से ऊपर की तरफ गोलिया दागते और चीते की सी फुर्ती सेचट्टानों के पीछे छुप जाते. राइफल कंपनी के कई सैनिक शहीद हो गए थे. बचे हुए कुछसैनिकों के साथ मानेकशा चोटी पर पहुंच गए और अब दोनों तरफ के सैनिक आमने -सामने थे. सैम मानेकशॉ अपनी रायफल सेएक जापानी को निशाना बना रहे थे तभी दूसरी तरफ से एक दुसरे जापानी ने आकर उनपरगोलियों की बरसात कर दी. मानेकशा ने पलट कर उसे भी मार गिराया पर खुद भी गिर पड़े, उनके पेट में 9 गोलियां लगी थीं. लेकिन पगोडा हिल पर फतह हासिल कर ली थी.
ज्यादातर जापानी सैनिक मारे गए थे .जो एकाध बचे थे,वे पीठ दिखा भाग खड़े हुए थे. सैम मानेकशॉ के शरीर से जगह जगह से खून बह रहा था, गोलियों ने उनके फेफड़े, किडनी, लीवर सबको डैमेज कर दिया था. पर उनके चेहरे पर जीत की मुस्कान थी .मेजर जनरल ‘डी. टी. कोवान’ जो देहरादून मिलिट्री अकादमी में उनके कंपनी कमांडर भी रह चुके थे ‘पगोडा हिल’ पर कब्जे कीखबर सुनते ही दौड़ते हुए, उन्हें बधाईदेने आये .पर मानेकशा को इस बुरी तरह जख्मी देखकर चिंतित हो गए. वे ,मानेकशा की वीरता के लिए उन्हें ‘मिलिट्री क्रॉस’ पदक दिलवाना चाहते थे. पर मानेकशा की हालत देख. .उन्हें लगा, अब सैम का बचना मुश्किल है . इस पदक के लिए नियम था कि यह पदक सिर्फजीवित मिलिट्री ऑफिसर को ही मिलता है. ‘डी. टी. कोवान’ ने कुछ सोचा और झट अपना मेडल उतार कर सैम मानेकशा की वर्दी पर लगा करअपने जूनियर को एक कड़क सैल्यूट दिया. मानेकशा ने भी बेहोशी से मुंदती आँखों को ज़रासा खोल अपने दाहिने हाथ को माथे से लगा,उनके सैल्यूट काजबाब दिया.
मानेकशा के अर्दली सिपाही शेर सिंह ने उन्हें अपने कंधे पर उठाया औरदौड़ते हुए कैम्प में इलाज के लिए ले गए .वहाँ, डॉक्टर नेउन्हें फर्स्ट एड देकर ‘पेगु’ के अस्पताल में रेफर कर दिया . पहाड़ियों का ऊंचा नीचा, झाड़ियों से भरा दुर्गम रास्ता, जीप हिचकोलेखाती आगे बढ़ रही थी. मानेकशा का सर सिपाही शेर सिंह की गोद में था. शेर सिंहउन्हें बीच बीच में पानी पिलाता और जगाने की कोशिश करते हुए कहता, ‘साब आप शेर दा पुत्तर हो, ये गोलियां आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं. आँखें खोलो साब. आपको अभी बहुतसारे जंग फतह करने हैं. “ मानेकशा जरा सीआँखें खोल मुस्करा देते अस्पताल तक जाने में ३६ घंटे लग गये. अस्पताल पहुँच कर शेर सिंह नेउन्हें बेड पर लिटाया और भागते हुए डॉक्टरको बुलाने चले गए. ऑस्ट्रेलियन डॉक्टर ने जब सुना कि उनके पेट में 9 गोलियां लगीहैं और ३६ घंटे बीत चुके हैं तो उन्हें देखने से इनकार कर दिया. कहा, ‘अब टुमारा शाब नई बच शकता उसपर टाईम वेष्ट करनेका कोई फायडा नई ,इतने टाईम मेंमैं दूशरा सोल्जर्स को डेक लेगा “ शेर सिंह उनकारास्ता रोक कर घुटने के बल बैठ गया , “नई डॉक्टर आपकोमेरे शाब को देखना ही पडेगा. मेरा शाब बहुत बहादुर है. उसको कुछ नहीं हो सकता.उसको बस थोड़ा इलाज की जरूरत है. “ शेर सिंह कीजिद के आगे डॉक्टर को मानेकशा को देखने जाना ही पड़ा. उसी वक्त सैम को ज़रा सा होशआया और डॉक्टर ने उनसे पूछा....” टुमको क्या हुआयंगमैन?“ ऐसी घायल अवस्था में भी सैम ने मुस्करा कर कहा, “ कुछ नहीं बस एक शैतान गधे ने लात मार दी “ डॉक्टर हैरान रह गए , ऐसी हालत मेंभी कोई मजाक कर सकता है. उन्होंने हंस कर कहा, ‘टुमारा सेन्सऑफ ह्यूमर तो कमाल का है, अब तो टुमकोबचाना ही पड़ेगा “ डॉक्टर नेगोलियां निकालीं, उनकी छोटी आंतके कुछ हिस्से काट दिए. घावों को स्टिच करके उन्हें ‘रंगून’ के बड़े अस्पतालमें भेज दिया.
सैम बिस्तर पर पड़े , खिड़की से कुछबच्चों को खेलते देख रहे थे .उन्हें अपने बचपन की याद आ गई वे भी ऐसे ही अपनेदोस्तों के साथ खेला करते थे ..बॉल अक्सर झाड़ियों में चली जाती और जब सारे बच्चे बॉल ढूंढ रहे होते, वे भागकर अपने पिता की क्लिनिक में पहुँच जाते. कानों में आला लगाए, मरीजों दवाइयां देते,उनकी मरहमपट्टीकरते पिता, सैम को कोईदेवदूत सरीखे लगते. सैम ने सोच लिया, वे भी बड़े होकरडॉक्टर बनेंगे .पिता ने कहा, ‘वे अच्छेनम्बरों से पास होंगे तो उन्हें मेडिकल पढने लन्दन भेज देंगे.” सैम ने सीनियर कैम्ब्रिज में टॉप किया. पांच विषयों में डिस्टिंक्शनलाया. पर पिता को पन्द्रह वर्ष की उम्र में बेटे को अकेले विदेश भेजना गवारानहीं हुआ. पिता ने वादा किया कि सैम के अठारह के होते ही उन्हें मेडिकल पढने लंदनभेज देंगे. लेकिन सैम का उत्साह से भरा किशोर मन बुझ गया. उन्हें अंदाजा नहीं था , ईश्वर ने इस से कहीं बड़ा काम उनके लिए सोच रखा है. सिर्फ कुछ मरीजोंकी जिंदगी बचाना उनकी तकदीर में नहीं था बल्कि देश की तकदीर बदलने में वे सहायकहोने वाले थे. डॉक्टर बनकर कुछ ही बच्चों के जन्म का निरिक्षण कर पाते जबकि उनकीदेखरेख में एक नया राष्ट्र जन्म लेने वाला था. और नियति ने उनकी नजरों के सामने अखबार के पन्नों पर छपा एक विज्ञापनरख दिया. विज्ञापन में था कि देहरादून मेंपहली भारतीय सेना अकादमी में एडमिशन के लिए परीक्षा होने वाली है. सैम ने माँ सेदिल्ली जाने के लिए पैसे मांगे . माँ उन्हें इस तरह चुप और उदास देखकर परेशान थीं.उन्होंने झट से रूपये निकाल कर दे दिए कि दिल्ली जाकर बच्चे का मन बहल जाएगा.
मिलिट्री एकेडमी से ट्रेनिंग कर वे सेकेण्ड लेफ्टिनेंट बने और फिरकैप्टन के रूप में बर्मा में उनकी पोस्टिंग हुई. जहां उन्होंने अपनी जान दांव पर लगा, वीरता के झंडे गाड़ दिए. जब स्वतन्त्रता मिली और भारत का विभाजन हुआ तो सैम मानेकशा के सामनेबड़ी दुविधा आ गई . वे पारसी थे और पारसी लोगों के लिए दोनों देशों के द्वार खुलेहुए थे. अब तक पूरा देश एक था.. लाहौर से बंबई, कलकत्ता सेढाका हर जगह बेख़ौफ़ आया जाया करते थे. हर शहर में उनके मित्र थे . अब उसी देश को दोटुकड़ों में बंटता देख उनका कलेजा फट रहा था. अब वे एक देश में रहना क़ुबूल करें तोदूसरा देश उनके लिए अजनबी हो जाएगा . सैम मानेकशा गोरखा रेजिमेंट से जुड़े हुए थे.सेना के भी दो भाग हो गए थे और गोरखा रेजिमेंट भी दो भागों में बंट गया था . इसरेजिमेंट में उनके प्राण बसते थे .वे बड़े जोश से कहते थे, “ अगर कोई सिपाही कहता है कि वो मौत से नहीं डरतातो फिर या तो वो झूठ बोल रहा होता है या फिर वो गोरखा है.” वे खुद को पारसी नहीं गोरखा कहते थे. उनका प्रचलित नाम “सैम बहादुर “ भी गोरखारेजिमेंट की ही देन था. सैम अपने सिपाहियों से दोस्ताना व्यवहार रखते थे. उनकी बीच जाकर बैठ जाते. उनके साथ हंसी मजाक करते . कभी उनकी मेस में चले जाते ,साथ खाना खाते .
एक बार यूँ ही उन्होंने एक सिपाही से पूछा, “ तुम्हारा क्या नाम है ? “
“तेज बहादुर “
“तुम्हारे चीफका क्या नाम है ? “
वह सैनिक घबरा गया . हडबडाते हुए उसने कहा, “सैम बहादुर “
मानेकशा ठहाका लगाकर हंस पड़े , ‘हाँ एकदम सही कहा .मैं गोरखा ही हूँ .मेरा नाम ‘सैम बहादुर’ ही होना चाहिए.” और तब से सबलोगउन्हें प्यार से ‘सैम बहादुर’ ही कहने लगे.बंटवारे के बाद इस रेजिमेंट के कुछ सैनिकों से उनकी दूरी हो जायेगी ,यह बात उन्हें कचोट रही थी. सैम मानेकशा का बचपन अमृतसर में गुजरा था, पढ़ाई नैनीताल और देहरादून में हुई थी. उनकी पत्नी सीलू भी अमृतसर कीथीं. भारत उनके दिल के ज्यादा करीब था और उन्होंने अपने दिल की सुन, भारत में रहने का फैसला किया .वे अपना गम भुलाकर देश की सेवा में जुट गए. उन दिनों हर तरफ मार काटमची हुई थी. दंगे हो रहे थे . दोनों देशों के बीच लकीरें खिंच गईं थीं और लकीरोंके पार, अपना सबकुछछोडकर लुटे-पिटे से लोग चले आ रहे थे. सबके चेहरे से मुस्कान गायब थी, चेहरा ग़मगीन था और आँखों में आंसू भरे हुए थे. लोग अपना घर,जमीन,धन सब छोडकरआये थे. कुछ लोगों के परिवार भी बिछड़ गए थे.
सेना की जिम्मेवारी बढ़ गई थी. सेनाउन्हें फिर से बसाने, शांति बहालकरने में पूरी तरह लगी हुई थी. मिलिट्री ऑपरेशन के डायरेक्टरके पद पर होने की वजह से सैम मानेकशा खासे व्यस्त हो गए थे. कभी कश्मीर में सरउठाये कबाइलियों का दमन करने के लिए उनकी पुकार होती तो कभी कलकत्ता में नोआखालीमें हो रहे दंगो को शांत करने के लिए उन्हें बुलाया जाता. कश्मीर में कबाइलियों काआतंक बढ़ता जा रहा था . वहाँ के राजा हरिसिंह भारत से सहायता तो मांग रहे थे परभारत में विलय होने क कागज़ पर हस्ताक्षर करने में देर कर रहे थे . पंडित नेहरूसैनिक कार्यवाई को लेकर असमंजस में थे. आखिर सरदार पटेल ने स्थिति सम्भाली, राजा हरिसिंह से भारत में शामिल होने के कागज़ पर दस्तखत कराये , नेहरु को समझाया और मानेकशासे कश्मीर में को शांति स्थापित करने के लिए प्रयास करने लिए कहा . मानेकशाअभी कश्मीर में काम कर ही रहे थे किकलकत्ता में दंगे शुरू हो गए. ब्रिटिश कमांडर इन चीफ ने आकर कहा कि “सरदार पटेल आपको कलकत्ता में बुला रहे हैं. आपको ले जाने के लिए एकप्लेन तैयार खड़ा है.” कलकत्ता मेंसरदार पटेल के साथ कलकत्ता के मुख्यमंत्री वी.सी. रॉय खड़े थे . उन्होंने मानेकशासे सीधा पूछा, “मुझे कोई बहस नहीं, कोई टालमटोल नहीं सिर्फ सीधा जबाब चाहिए ...अगरमैं सेना को सिचुएशन सौंप दूँ तो आप हमारे कितने बंगालियों को मारेंगे और कितने दिनों में शांति कायम हो जाएगी?” सैम मानेकशा की रगों में जवान खून उबाल मार रहा था .वे नेताओं की तरह घुमा फिरा कर बात करना नहींजानते थे . वे साफ़ साफ़ बोलने के लिए बदनामथे ,उन्हें मुँहफट भी कहा जाता था .मानेकशा बोले, “शायद सौ लोग की जान जा सकती है और एक महीने मेंशांति लागू हो जायेगी.” सरदार पटेल नेवी सी राय की तरफ मुड़ कर कहा, ‘दंगे में तोहजारों मर रहे हैं, ये सिर्फ सौ कीबात कर रहे हैं. “.फिर मानेकशा से बोले, “ “ठीक है ...आपकार्यवाई शुरू कीजिये.” मानेकशा नेपूरे कलकत्ता के कोने कोने में अपने जवान तैनात किये. खुद दिन रात हर महल्ले कादौरा करते. लोगों से मिलते , उनकीपरेशानियां सुनते, उन्हें समझाते.लोगों के घरों में राशन पहुँचवाते, बच्चों के लिए दूध भिजवाते. बीमार को पूरी सुरक्षा के साथ अस्पताल लेजाते. इस तरह आम लोगों को उनपर भरोसा हुआऔर बिना किसी खून खराबे के कुछ ही दिनों में पूरी तरह शांति बहाल हो गई.. बाद मेंसरदार पटेल ने मानेकशा को बुला कर गुजराती में कहा, ‘ “तमे साचो नहींबोलो ? तमे बोल्यो एक सो बंगालीयो ना मारसो पण एक बी नईमारयो “(तुमने सच नहींकहा था ? एक सौ बंगालीको मारोगे पर एक को भी नहीं मारा )फिर पास बुलाकर, ‘वेलडन...थैंक्यू’ कहकर उनकी पीठ थपथपाई .
पर फूलों के साथ काँटों का रिश्ता हमेशा से रहा है. अगर कुछ लोग उनकीतारीफों के पुल बाँध रहे थे तो कुछ लोग उन पुलों को धराशायी करने में भी जुटे हुएथे. मानेकशा का इतनी लगन और मेहनत से काम करना और बड़े नेताओं का उनपर अटूट विश्वासकुछ अधिकारियों से देखा नहीं जा रहा था. उन दिलजले लोगों ने मंत्रियों के कान भरनेशुरू कर दिए. सैम मानेकशा किसी के भी मुंह पर सीधे शब्दों में अपनी बात रखते जोअधिकारियों को नागवार गुजरता. वे लोग चमचागिरी के आदी थे. जूनियर्स उनकी झूठीतारीफ करें, हर बात में हाँमें हाँ मिलाये. उनके बोदे चुटकुलों पर छ्तफाड़ ठहाके लगाएं. उनके हर निर्णय कोआँखें मूँद कर सपोर्ट करें. यह सब मानेकशा से नहीं होता और वे मंत्रियों ,उच्च अधिकारियों के बैड बुक्स में आ गए. समय समय पर कही गई उनकी बातोंको तोड़-मरोड़ कर उनके विरुद्ध इन्क्वायरी बिठा दी गई. उसमें कोई भी सिरियस चार्जनहीं था ,कुछ बड़ीहास्यास्पद सी बातें थीं.
अभी इन्क्वायरी चल ही रही थी कि १९६२ में चीन ने भारत परआक्रमण कर दिया .नेहरु समेत सभी लोग चकित रह गए. भारत युद्ध के लिए बिलकुल भीतैयार नहीं था. ईर्ष्यावश मानेकशा को युद्ध की गतिविधियों से दूर रखा गया. जब कईमोर्चों पर भारत की हार होने लगी तो सैम मानेकशा के विरुद्ध आरोपों को खारिज करउन्हें युद्ध की कमान सौंपी गई. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. भारत के एक बड़े भू भाग पर चीन ने कब्जा कर लिया था.चीन की जीत पर पकिस्तान इतराया और उसने भी सोचा, वह भी भारत को मात दे सकता है. पाकिस्तान अपनी अंदरूनी समस्याओं सेजूझ रहा था. उसके पास शक्तिशाली नेतृत्व नहीं था. वहाँ के लोगों को अपने नेताओं परभरोसा नहीं था . रोजमर्रा की चीजें नहीं मिल रही थीं. लोग भूखे थे, बेरोजगार थे .अपनी सरकार से बेहतर सुविधाओं की मांग कर रहे थे .और इन सबसे लोगों का ध्यानहटाने के लिए पाकिस्तान ने सोचा, ‘भारत पर आक्रमणकर देगा तो सारी जनता का ध्यान युद्ध की तरफ हो जाएगा. उनमें देशभक्ति का जोश उबालमारने लगेगा और रोज की असुविधाओं से उनका ध्यान हट जायेगा”
पर इस बार भारत की सेना सम्भल चुकी थी और अब उनके पास सैम मानेकशाजैसे सैन्य अधिकारी का साथ भी था. उनके और दूसरे जाबांज ऑफिसर्स के प्रयासों सेभारत इस युद्ध में विजयी रहा. पाकिस्तान के पास अमरीका से खरीदे आधुनिक पैटन टैंकथे. भारत के पास वही द्वितीय विश्व युद्ध के समय के पुराने टैंक थे. पर मशीन सेज्यादा मशीन चलाने वाले पर कोई भी जीत निर्भर करती है. हमारे पास साहस से भरे तेजदिमाग वाले वीर ऑफिसर थे. जिन्होंने पाकिस्तान के मंसूबों पर पानी फेर दिया. पाकिस्तान में उथल पुथल जारी थी. 1970 में आम चुनाव हुए और पूर्वीपाकिस्तान के शेख मुजिबुर्र्रह्मान की ‘आवामी लीग’ ने बहुमत हासिल किया. यह पश्चिमी पाकिस्तान के रहनुमाओं को कैसे बर्दाश्तहोता और उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर जुल्म ढाने शुरू कर दिए.पाकिस्तानी सेना ने आम लोगों पर लूट-पाट, बलात्कार, कत्ल शुरू कर दिए. आम लोग जान बचाने के लिए भारत से लगी सीमा वाले गाँवों में भाग कर आने लगे. बहुत दुखद स्थिति थी. रोज हजारों लोग अपना घर बार, सामान सब कुछ छोड़कर सिर्फ जान बचाने के लिए भारत की सीमा में दाखिलहोने लगे.
बंगाल, त्रिपुरा, असम के मुख्यमंत्री परेशान हो गए. उन्होंने उस समय की प्रधानमन्त्रीइंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखी. और इस पलायन को रोकने के लिए कुछ करने को कहा. एक हीउपाय था ,भारतीय सेनाभेजकर पाकिस्तानी सेना को जुल्म ढाने से रोक दिया जाए. इस सूरत में युद्ध होना निश्चितही था.अप्रैल 1971 को इंदिरा गांधी ने अपने कैबिनेट की मीटिंग बुलाई और ‘सेना प्रमुख सैम मानेकशा’ को भी बुलाया.मानेकशा से पाकिस्तान पर आक्रमण के लिए कहा पर सैम मानेकशा ने बिलकुल इनकार करदिया .उन्होंने कहा, “इस वक्त हमारीसेना युद्ध के लिए बिलकुल तैयार नहीं है. कुछ ही दिनों में मॉनसून आने वाला है.बांगला देश की मिटटी दलदल सी बन जाएगी ,उसमें हमारेटैंक धंस जायेंगे .बारिश के समय वहाँ की नदियाँ छोटे मोटे समुद्र का रूप ले लेतीहैं. एक छोर से दूसरा छोर नहीं दिखता .ऐसेमें हम सही तरीके से युद्ध नहीं कर पायेंगे . अभी पंजाब के खेतों में फसल लगी हुईहै. सारी फसल रौंदी जाएगी और हमारी मूवमेंट पर भी असर पड़ेगा .इस वजह से इन सारीतैयारियों के लिए मेरी सेना को वक्त चाहिए “ रक्षा मंत्री जगजीवन राम जो सैम नहीं कह पाते थे ने भी जोर देकर कहा, ‘” साम मान भी जाओ, युद्ध के लिएतैयार हो जाओ “ पर मानेकशा ने हाथ जोड़ लिए. जब सबलोग मीटिंग से जाने लगे तो इंदिरागांधी ने मानेकशा को रुकने के लिए कहा. मानेकशा ने सबके जाने के बाद कहा, “इस से पहले कि आप कुछ कहें .मैं इस्तीफा देने केलिए तैयार हूँ. मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य खराब होने का कोई भी बहाना बना दूँगा.पर इस वक्त मैं युद्ध के पक्ष में बिलकुल नहीं हूँ. १९६२ की तरह हमलोग बुरी तरहहार जायेंगे “ इंदिरा गांधी ने कहा, “नहीं आपकाइस्तीफा नहीं चाहिए. मुझे ये बताइये कि आपको युद्ध की तैयारी के लिए कितना वक्तचाहिए ?” मानेकशा ने कहा, “देश के कोने कोने से अपने सैनिकों को इकट्ठाकरने, युद्ध का प्लान बनाने उन्हें प्लान समझाने, सैनिकों को बौर्डर पर तैनात करने में मुझे चार-पांच महीने लग जायेंगे.और युद्ध की तैयारी के बाद मैं आपको भारत की जीत की पूरी गारंटी देता हूँ. “ इंदिरा गांधीने हामी भरी और मानेकशा युद्ध की तैयारी में लग गए.
मानेकशा यह भी चाहते थे किभारत की शांतिप्रिय देश की छवि को कोई ठेस ना पहुंचे . पूर्वी पाकिस्तान की मुक्तिवाहिनी सेना को भारत की मदद मिल ही रही थी. उनकी योजना थी कि इन सबसे त्रस्त होकरपाकिस्तान खुद ही आक्रमण कर दे. मानेकशा ने दिसम्बर में अपनी सेना की पूरी तैयारी की सूचना इंदिरागांधी को दी. मानेकशा खुद लद्दाख से लेकर पूरे बौर्डर पर जाकर सैनिकों से मिलते औरकहते, “हमने आपको ट्रेनिंग दी, हथियार दिए अब आप अपने देश को जीत दिला दो “ सारे जवान सबसे बड़े अफसर को अपने पास देखकर जोश से भर जाते. जब इंदिरा गांधी ने पूछा, “अब हम युद्ध केलिए तैयार हैं ? “ मानेकशा नेअपने बेलौस अंदाज में कहा, “येस, वी आर रेडी स्वीटी’ इंदिरा गांधी उनकीबात करने के तरीके से वाकिफ थीं. उन्होंने बिलकुल बुरा नहीं माना और नज़रंदाज़ करदिया .3 दिसम्बर 1971 को लड़ाई शुरू हुई और सिर्फ 13 दिनों में मानेकशा केनेतृत्व में भारतीय सेना ने,पाकिस्तानीसेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया.पाकिस्तानी सेना बुरी तरह हार रही थी. मानेकशा को पता था, अब वे लोग सरेंडर कर देंगे . उन्होंने पहले ही समर्पण के कागज़ात तैयारकरवा लिए थे. मानेकशा ने जनरल जगजीत सिंहअरोड़ा से कहा, “ इट्स अ बिग डे इन योर लाइफ. टेक योर वाइफ विदयू.” सैम मानेकशा के मन में औरतों के लिए बहुत इज्जतथी. प्रधान मंत्री और सेनाप्रमुख दोनों काएक दूसरे पर भरोसा बहुत जरूरी है. तभी कोई देश आगे बढ़ता है. पाकिस्तानी जनरल नियाज़ी के साथ 93 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों ने सरेंडरकर दिया. एक नए देश ‘बांग्ला देश’ का उदय हुआ.
पर मानेकशा को बंदी बनाये गए ,पाक्सितानी सैनिकों की ज्यादा चिंता थी. वे उन्हें लेकर भारत आये.उनके आराम का पूरा ख्याल रखा. भारतीय सैनिक टेंट लगाकर सोते थे. जबकि बंदी बनायेगए पाकिस्तानी सैनिक उनके पक्के बैरक में सोते थे. मानेकशा कैम्प में जाकर सभी से मिलते. पाकिस्तानी सूबेदार से पूछते , ‘बिस्तर में खटमल तो नहीं है. मच्छरदानी है ना. “ फिर उनके किचन में जाकर खुदखाना खा कर देखते कि खाना ठीक बना है या नहीं. साफ़ सफाई करने वाले से हाथ मिलानेको हाथ बढाया तो उस सफाईकर्मी ने मना कर दिया. मानेकशा ने कहा, ‘क्यूँ कोई नाराजगी है...हाथ क्यूँ नहीं मिलाओगे ?’ उसने हाथ मिलाया जब वे सबसे मिलकर जाने लगे तोपाकिस्तानी सूबेदार ने कहा, ‘गुस्ताखी माफ़हो हुजुर तो कुछ पूछूँ ? ‘ मानेकशाने कहा,, ‘आप हमारेमेहमान हैं कुछ भी पूछ सकते हैं. उसने कहा, “अब मुझे पता चलगया कि हिन्दुस्तानी फ़ौज क्यूँ जीती. आप खुद जाकर सिपाहियों से मिल रहे हैं. उनकेआराम का ख्याल रख रहे हैं. उनका खाना चखकर देख रहे हैं. हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता. सेना के अफसर अपने आपको नवाबजादे समझतेहैं.” मानेकशा को ये ख्याल था कि ये पाकिस्तानी अपने गाँव जायेंगे . वहाँखटिया पर बैठेंगे, हुक्का पियेंगे. अपने गाँव वालों को युद्ध के किस्से सुनायेंगे .तब वोहमारे बारे में कहेंगे कि हिन्दुस्तान के लोग बुरे नहीं हैं ,उन्होंने हमारा ख्याल रखा. उनके मन में हमारे लिए नफरत का जलजला नहींहोगा.जब वे रिटायरमेंट के बाद पाकिस्तान गए तो पाकिस्तानी सैनिकों ने अपनी पगड़ीउतार कर उनके पैरों पर रख दी और उन्हें अपने भाइयों के साथ इतना बढ़िया सुलूक करनेके लिए दिलो जान से शुक्रिया कहा.
१९७२ में उन्हें पद्मविभूषण दिया गया. १९७३ में उन्हें ;फील्ड मार्शल’ की उपाधि दीगई. वे जीवनपर्यन्त भारत के फील्ड मार्शल रहे. एक सार्थक भरी पूरी जिंदगी जीने के बाद 27 जून 2008 को उन्होंने अपनीआँखें सदा के लिए मूँद लीं
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